________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 750 कुण्डलधारी वैश्रमण देव और महान ऋद्धि सम्पन्न लोकान्तिक देव 15 कर्मभूमियों में होने वाले) तीर्थकर भगवान् को प्रतिबोधित करते हैं // 114 // 751. ब्रह्म (लोक) कल्प में आठ कृष्णराजियों के मध्य में आठ प्रकार के लोकान्तिक विमान असंख्यात विस्तार वाले समझने चाहिए / / 115 / / 752. ये सब देव निकाय (आकर) भगवान् वीर-जिनेश्वर को बोधित (विज्ञप्त) करते हैं-हे अर्हन् देव ! सर्वजगत् के जीवों के लिए हितकर धर्म-तीर्थ का प्रवर्तन (स्थापना) करें / / 116 // विवेचन-सांवत्सरिकदान और लोकान्तिक देवों द्वारा उद्बोध-प्रस्तुत सूत्र 7491 से 752 तक 6 गाथाओं में मुख्यतया दो बातों का उल्लेख है, जो प्रत्येक तीर्थकर भगवान् द्वारा दीक्षा ग्रहण करने का अभिप्राय व्यक्त करने के बाद निश्चित रूप से होती हैं--(१) प्रत्येक तीर्थंकर दीक्षा ग्रहण से पूर्व एक वर्ष तक दान करते हैं / वे प्रतिदिन सूर्योदय से एक प्रहर तक 1 करोड़ 8 लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करते हैं, इस प्रकार वार्षिक दान की राशि 3 अरब 88 करोड़ 80 लाख स्वर्णमुद्राएं हो जाती हैं। (2) ब्रह्मलोकवासी लोकान्तिक देव तीर्थकर ये विनम्र विज्ञप्ति (बोध) करते हैं तीर्थ स्थापना करने हेतु / बोध का अर्थ यहाँ नम्रविज्ञप्ति या सविनय निवेदन करना है। जिन तो स्वयंबुद्ध होते हैं। उन्हें बोध देने की अपेक्षा नहीं रहती / लोकान्तिक देव एक प्रकार मे भगवान् के वैराग्य की सराहना, अनुमोदना करते हैं / यह उनका परम्परागत आचार है / अभिनिष्क्रमण महोत्सव के लिए देवों का आगमन 753. ततो णं समणस्स भगवतो महावीरस्स अभिनिक्खमणाभिप्पायं जाणित्ता भवणवति-वाणमंतर-जोतिसिय-विमाणवासिणो देवा य देवीओ य सएहि 2 रूवेहि, सहि 2 णेवत्यहि, सहि 2 चिहि, सब्बिड्ढीए सव्वजुतीए' सव्वबलसमुदएणं सयाई 2 जाणविमाणाई दुरुहंति / सयाई 2 जाणविमाणाई दुरुहित्ता अहाबादराइपोग्गलाई परिसाउँति / अहाबादराई पोग्गलाई परिसाडेत्ता अहासुहुमाइपोग्गलाइ परियाइति / अहासुहमाइपोग्गलाइ परिया इत्ता उड्ढे उप्पयंति / उड्ढे उप्पइत्ता ताए उक्किट्ठाए सिग्घाए चवलाए तुरियाए दिवाए देवगतीए अहेणं ओवतमाणा 2 तिरिएणं असंखेज्जाई दीव समुद्दाई वीतिक्कममाणा 2 जेणेव जंबुद्दीवे तेणेव उवागच्छंति , तेणेव उवागच्छित्ता जेणेव उत्तरखत्तियकुंडपुरसंनिवेसे तेणेव उवागच्छंति तेणेव उवागच्छित्ता जेणेव उत्तरत्तियकुंडपुरसंणिवेसस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसाभागे तेणेव झ त्ति वेगेण ओवतिया। 1. 'जुतीए' के बदले पाठान्तर है- 'जुत्तीए' / अर्थ समान है / कल्पसूत्र में सदिवड्ढीए सव्वजुईए पाठ है। 2. 'सयाई सयाई' के बदले 'साई साइ" पाठ है। 3. 'पच्चोतरित' के बदले 'पच्चोयरति' पाठ है। कहीं 'पच्चोठवई' पाठ भी है। 4. 'ओवतिया' के बदले 'उत्तिया' पाठान्तर है। Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only