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________________ प्रथम अध्ययन : दसम उद्देशक : सूत्र 366-401 आपकी अनुमति हो तो मैं इन्हें पर्याप्त आहार दूं।” उसके इस प्रकार कहने पर यदि गुरुजनादि कहें.---'आयुष्मन् श्रमण ! तुम अपनी इच्छानुसार उन्हें यथापर्याप्त आहार दे दो।' ऐसी स्थिति में वह साधु जितना-जितना वे कहें, उतना-उतना आहार उन्हें दे दें। यदि वे कहें कि 'सारा आहार दे दो', तो सारा का सारा दे दें। 400. यदि कोई भिक्षु भिक्षा में सरस स्वादिष्ट आहार प्राप्त करके उसे नीरस तुच्छ आहार से ढक कर छिपा देता है, ताकि आचार्य, उपाध्याय, यावत् गणावच्छेदक आदि मेरे प्रिय व श्रेष्ठ इस आहार को देखकर स्वयं न ले लें / मुझे इसमें से किसी को कुछ भी नहीं देना है। ऐसा करने वाला साधु मायास्थान का स्पर्श करता है। साधु को ऐसा छल-कपट नहीं करना चाहिए। वह साधु उस आहार को लेकर आचार्य आदि के पास जाए और वहाँ जाते ही सबसे पहले झोली खोल कर पात्र को हाथ में ऊपर उठा कर 'इस पात्र में यह है, इसमें यह है', इस प्रकार एक-एक पदार्थ उन्हें बता दे। कोई भी पदार्थ जरा-सा भी न छिपाए। 401. यदि कोई भिक्षु गृहस्थ के घर से प्राप्त भोजन को लेकर मार्ग में ही कहीं, सरस-सरस आहार को स्वयं खाकर शेष बचे तुच्छ एवं नीरस आहार को उपाश्रय में आचार्यादि के पास लाता है, तो ऐसा करने वाला साध मायास्थान का सेवन करता है। साधु को ऐसा नहीं करना चाहिए। विवेचन-स्वाद-लोलुपता और प्रच्छन्नता-साधु-जीवन में जरा-सी भी माया अनेक दोषों, यहां तक कि सत्य, अहिंसा और अस्तेय, इन तीन महाव्रतों का ध्वंस कर देती है; क्योंकि ऐसा साधक मायावश वास्तविकता को छिपाता है, इससे सत्य महावत को आंच आती है, तथा मायावश महान् रत्नाधिकों को न बताकर छिप-छिप कर सरस आहार स्वयं खा जाता है, इससे अचौर्य महाव्रत भंग होता है, तथा मायावश प्रासुक, एषणीय एवं कल्पनीय का विचार न करके जैसा-तैसा दोषयुक्त आहार ले आता है तो अहिंसा-महाव्रत भी खण्डित हो जाता है / आहार-वितरण में पक्षपात करता है तो समता का भी नाश हो जाता है। साथ ही स्वाद-लोलुपता भी बढ़ती जाती है।' इन तीनों सूत्रों में स्वादलोलुपता और माया से बचने का स्पष्ट निर्देश किया गया है / इन तीन सूत्रों में माया-दोष के तीन कारणों की सम्भावना का चित्रण प्रस्तुत किया गया है(१) आहार-वितरण के समय पक्षपात करने से, (2) सरस आहार को नीरस आहार से दबा कर रखने से, (3) भिक्षा प्राप्त सरस आहार को उपाश्रय में लाए बिना बीच में ही कहीं खा लेने से। 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 353 के आधार पर, 2. तुलना कीजिए-सिया एगइओलद विविहं पाणभोयणं / / भद्दगं भग भोच्चा विवणं विरसमाहरे॥ . . -दशव० 5/2/33 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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