________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय भू तस्कन्ध पुरेसंधुया, पच्छासंधुया आदि शब्दों के अर्थ-यहाँ प्रसंगवश पुरेसंधुया का अर्थ होता हैपूर्व-परिचित--जिन श्रमण महापूज्य से मैंने दीक्षा ग्रहण की है, वे तथा उनसे सम्बन्धित, तथा पच्छासथुआ का अर्थ होता है--जिन महाभाग से मैंने शास्त्रों का अध्ययन-श्रवण किया है, वे तथा उनसे सम्बन्धित पश्चात्-परिचित। पवत्ती=साधुओं को वैयावृत्य आदि में यथायोग्य प्रवृत्त करने वाला प्रवर्तक / येरे स्थविर साधु जो संयम आदि में विषाद पाने वाले साधुओं को स्थिर करता है। गणी = गच्छ का अधिपति / गणधरे-गुरु के आदेश से साधुगण को लेकर पृथक् विचरण करने वाला आचार्यकल्प मुनि। गणावच्छइए --गणावच्छेदक-गच्छ के कार्यों हितों का चिन्तक / अवियाई- इत्यादि, खरषद =अधिक-अधिक / जिसिरेज्जा दे। पलिच्छाएति=आच्छादित कर (ढक) देता है। सममाए स्वयं खाऊंगा। 'दाइए' दिया गया है। उत्ताणए हत्थे-सीधी हथेली में / विणिगूहेज्जा छिपाए।' बहु-उस्मितधर्मी-आहार-ग्रहण निषेध 402. से भिक्ख वा 2' से ज्ज पुण जाणेज्जा अंतरुच्छुयं वा उच्छुगंडियं वा उच्छुचोयगं वा उच्छुमेरगं वा उच्छुसालगं वा उच्छुडालगं वा संबलि वा संबलिथालिग वा, अस्सि खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे भोयणजाते बहुउज्झियधम्मिए, तहप्पगारं अंतरुच्छुयं वा जाव संबलिथालिगं वा अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 403. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण जाणेज्जा बहुअट्ठियं वा मंसं मच्छं वा बहुफंटगं, अस्सि खलु पडिग्गाहितसि अप्पे भोयणजाते बहुउज्झियधम्मिए, तहप्पगारं बहुअट्ठियं वा मंसं मच्छं वा बहुकंटगं लाभे संते णो पडिगाहेज्जा। 404. से भिक्खू वा 2 जाव समाणे सिया गं परो बहुअढिएण मंसेण उवणिमंतेज्माआउसंतो समणा ! अभिकखसि बहुअट्टियं मंसं पडिगाहेत्तए ? एतप्पगारं णिग्धोसं सोच्चा जिसम्म से पुकामेव आलोएज्जा--आउसो ति वा भइणी ति वा णो खलु मे कप्पति बहुअट्ठियं मंसं पडिगाहेत्तए / अभिकखसि मे दाउं, जावतिसं तावतितं पोग्गलं वलयाहि, मा अट्ठियाई / से सेवं वदंतस्स परो अभिहट्ट अंतोपडिग्गहगंसि बहुअट्ठियं मंसं परियाभाएत्ता णिहट्ट 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 353 2. यहाँ '2' का चिन्ह गमधातु की पूर्वकालिक क्रिया 'गच्छित्ता का सूचक है। 3. संबलियालिग के स्थान पर पाठान्तर है, सिबलिथालिगं, सिलिथालियं, संगलियालगं, सिबलि थालं / अर्थ एक-सा है। 4. यहाँ जाव शब्द अफासूयं से लेकर गो पहिगाहेमा तक के पाठ का सुत्र 324 के अनुसार सूचक 5. यहां जाव शब्द सु. 324 के अनुसार गाहावाकुलं से समाणे तक के पाठ का सूचक है। 6. इसके स्थान पर जापतितं (तावश्य) गाहावति तं पोग्गलं...."पाठान्तर है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org