________________ आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध दसमो उद्देसओ वसम उद्देशक आहार-वितरण विवेक 366. से एगतिओ साहारणं वा पिंडवातं पडिगाहेत्ता ते साहम्मिए अणापुच्छित्ता जस्स जस्स इच्छइ तस्स तस्स खद्ध खद्ध दलाति / मातिट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तमायाए तत्थ गच्छेज्जा, गच्छित्ता पुन्वामेव एवं वदेज्जा-आउसंतो समणा ! संति मम पुरेसंथुया वा पच्छासंधुया वा, तंजहा---आयरिए वा उवज्झाए वा पवत्ती वा थेरे वा गणी वा गणधरे वा गणावच्छेइए वा, अवियाई एतेति खदखद्ध वाहामि ?' से वं ववंतं परो वदेजा-काम खलु आउसो ! अहापज्जत्तं निसिराहि / ' जावइयं 2 परो वदति तावइयं 2 णिसिरेज्जा / सव्वमेतं परो ववति सन्वमेयं णिसिरेज्जा। 400. से एगइओ मणुण्णं भोयणजातं पडिगाहेत्ता पंतेण भोयणेण पलिच्छाएति 'मामेतं दाइयं संतं दवणं सयमादिए तं जहा-] आयरिए वा जाव गणावच्छेइए वा / णो खलु में कस्सइ किंचि वि दातवं सिया / माइट्ठाणं संफासे / णो एवं करेज्जा। से तमायाए तस्थ गच्छेज्जा, 2 [त्ता) पुवामेव उत्ताणए हत्थे पडिग्गहं कट्टुइमं खलु इमं खलु त्ति आलोएज्जा / णो किंचि वि विणिगृहज्जा। 401. से एगतिओ अण्णतरं भोयणजातं पडिगाहेत्ता भयं भद्दयं भोच्चा विवणं विरसमाहरति / मातिढाणं संफासे / णो एवं करेजा। 366. कोई भिक्षु बहुत-से साधुओं के लिए गृहस्थ के यहाँ से साधारण अर्थात् सम्मिलित आहार लेकर आता है और उन साधार्मिक साधुओं से बिना पूछे ही (अपनी इच्छा से) जिसे-जिसे चाहता है, उसे-उसे बहुत-बहुत दे देता है; तो ऐसा करके वह माया-स्थान का स्पर्श करता है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। असाधारण आहार प्राप्त होने पर भी आहार को लेकर गुरुजनादि के पास जाए; वहाँ जाते ही सर्वप्रथम इस प्रकार कहे-"आयुष्मन् श्रमणो ! यहाँ मेरे पूर्व-परिचित (जिनसे दीक्षा अंगीकार की है) तथा पश्चात्-परिचित (जिनसे श्रुताभ्यास किया है), जैसे कि आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर (गच्छ प्रमुख) या गणावच्छेदक आदि; अगर + इस चिन्ह का पाठ कुछ प्रतियों में नहीं है। 1. कामं खलु आउसो..... आदि पाठ की व्याख्या चर्णिकार ने इस प्रकार की है-कामं गाम इच्छातः आहापज्जतं जहापज्जतं, जावइयं वा वरेज्जा / काम का अर्थ है-स्वेच्छा से, जिसके लिए जितना पर्याप्त हो, अथवा जितना आचार्यादि कहें.....। 2. जावइयं और तावइयं के पश्चात् 2' का चिन्ह उसी की पुनरावृत्ति का सूचक है / 3. इसके स्थान पर सहभादिए, सतमातिए पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ समान है। 4. इसके स्थान पर पाठान्तर है-विणिग्गज्जा , निग्नहेज्जा, गिगज्जा , अर्थ क्रमश: यों है---अदला बदली (हेरा-फेरी) करे, अपने कब्जे में करे, छिपाए----माया करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org