________________ 330 आचारांग सूत्र-द्वितीय शु तस्कन्ध होगा, (4) वाद्य-श्रवण की उत्कण्ठा के कारण नाना वादकों की चाटुकारी करेगा। इसलिए वाद्य शब्द अनायास ही कान में पड़ें, यह वात दूसरी है, किन्तु चलाकर श्रवण करने के लिए उत्कण्ठित हो, यह साधु के लिए उचित नहीं।" __प्रस्तुतचतु:सूत्री में मुख्यतया चार कोटि के वाद्य-श्रवण की उत्कण्ठा का निषेध है(१) वितत शब्द, (2) ततशब्द, (3) ताल शब्द और (4) शुषिर शब्द / वाद्य चार प्रकार के होने से तज्जन्य शब्दों के भी चार प्रकार हो जाते हैं। इन चारों के लक्षण इस प्रकार हैं(१) वितत–तार रहित बाजों से होने वाला शब्द, जैसे मृदंग, नंदी और झालर आदि के स्वर / (2) तत-तार वाले बाजे-वीणा, सारंगी, तुनतुना, तानपूरा, तम्बूरा आदि से होने वाले शब्द। (3) ताल-ताली बजने से होने वाला या कांसी, झांझ, ताल आदि के शब्द / (4) शुषिर-पोल या छिद्र में से निकलने वाले बांसुरी, तुरही. खरमुही, विगुल आदि के शब्द / स्थानांगसूत्र में शब्द के भेद-प्रभेद -जीव के वाक् प्रयत्न से होने वाला--भाषा शब्द तथा वाक्-प्रयत्न से भिन्न शब्द / इनके भी दो भेद किये हैं-अक्षर-सम्बद्ध, नो-अक्षर-सम्बद्ध / नो अक्षर-सम्बद्ध के दो भेद-आतोद्य (बाजे आदि का) शब्द, नो आतोद्य (बांस आदि के फटने से होने वाला) शब्द / आतोद्य के दो भेद-तत और वितत, तत के दो भेद-ततघन और ततशषिर, तथा वितत के दो भेद-विततधन, वितत-शुषिर। नो आतोद्य के दो भेद-भूषण, नोभूषण / नो भूषण के दो भेद-ताल और लतिका / प्रस्तुत में आतोद्य के सभी प्रकारों का समावेश-तत, वितत, धन और शुषिर इन चारों में कर दिया गया है / वृत्तिकार ने ताल को एक प्रकार से घनवाद्य का ही रूप माना है। परन्तु स्थानांग सूत्र में ताल और लतिका (लात मारने से होनेवाला या बांस का शब्द) को नो आतोद्य के अन्तर्गत नो-भूषण के प्रकारों में गिनाया है। भगवती सूत्र में वाद्य के तत, वितत, धन और शुषिर इन चारों प्रकारों का उल्लेख किया है। इसी प्रकार निशीथसूत्र में वितत तत, धन और शुषिर इन चार प्रकार के शब्दों का प्रस्तुत चतु:सूत्रीक्रम से उल्लेख किया है। 'बद्धीसगसद्दाणि' आदि पदों के अर्थ---'बद्धीसग* का अर्थ प्राकृत कोष में नहीं मिलता, 'बद्धग' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ तूण वाद्य विशेष किया गया है। तुणयसद्दाणि = तुनतुने के शब्द, पणवसद्दाणि = ढोल की आवाज, तुम्नवीवियसद्दाणि = तुम्बे के साथ संयुक्त वीणा के शब्द या तम्बूरे के शब्द, ढंकुणसहाणि =एक वाद्य विशेष के शब्द, कंसतालसद्दाणि = कांसे का शब्द, लत्तियसदाशि = कांसा, कंसिका के शब्द / गोहियसद्दाणि = भांडों द्वारा कांख और हाथ में रखकर 1. (क) आचारांग चणि मू० पा० टि० पृ० 240 (ख) आचा० वृत्ति पत्रांक 412 (ग) दशव० अ०८ गा० 26 (घ) उत्तराध्ययन अ० 32 गा० 38, 36, 40, 81 का भावार्थ 2. (क) आचागंग वृत्ति पत्रांक 412 (ख) स्थानांग० स्थान-२, उ० 3 सू०–२११ से 216 3. (क) आचा०वृत्ति० पत्रांक 412 (ख) निशीथ सू० उ० 17 पृ० 200-201 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org