________________ एकादश अध्ययन : सूत्र 666-72 326 सदाणि वा वंससदाणि वा खरमुहिसद्दाणि' वा पिरिपिरियसद्दाणि वा अण्णयराई वा तहप्पगाराई विरूवरूवाइं सद्दाई झुसिराई कण्णसोयपडियाए णो अभिसंधारेज्जा गमणाए। ___666. संयमशील साधु या साध्वी मृदंगशब्द, नंदीशब्द या झलरी (झालर या छैने) के शब्द तथा इसीप्रकार के अन्य वितत शब्दों को कानों से सुनने के उद्देश्य से कहीं भी जाने का मन में संकल्प न करे। 670. साधु या साध्वी कई शब्दों को सुनते हैं, अर्थात् अनायास कानों में पड़ जाते हैं, जैसे कि वीणा के शब्द, विपंची के शब्द, बद्धीसक के शब्द, तूनक के शब्द या ढोल के शब्द, तुम्बवीणा के शब्द, ढेकुण (वाद्य विशेष) के शब्द, या इसीप्रकार के विविध तत-शब्द किन्तु उन्हें कानों से सुनने के लिए कहीं भी जाने का मन में विचार न करे / 671. साधु या साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि ताल के शब्द, कंसताल के शब्द, लत्तिका (कांसी) के शब्द, गोधिका (भांड लोगों द्वारा कांख और हाथ में रखकर बजाए जाने वाले वाद्य) के शब्द या बांस की छड़ी से बजने वाले शब्द, इसीप्रकार के अन्य अनेक तरह के तालशब्दों को कानों से सुनने की दृष्टि से किसी स्थान में जाने का मन में संकल्प न करे। 672. साधु-साध्वी कई प्रकार के शब्द सुनते हैं, जैसे कि शंख के शब्द, वेणु के शब्द, बांस के शब्द, खरमुही के शब्द, बांस आदि की नली के शब्द या इसीप्रकार के अन्य नाना शुषिर (छिद्रगत) शब्द, किन्तु उन्हें कानों से श्रवण करने के प्रयोजन से किसी स्थान में जाने का संकल्प न करे। विवेचन-विविध वाद्य-स्वर श्रवणार्थ उत्सुकता निषेध-इन 4 सूत्रों (सू 666 से 672 तक) में विविध प्रकार के वाद्यों के स्वर सुनने के लिए लालायित होने का स्पष्ट निषेध है। इस निषेध के पीछे कारण ये हैं—(१) साधु वाद्यश्रवण में मस्त हो कर अपनी साधना को भूल जाएगा, (2) वाद्य-श्रवण रसिक साधु अहर्निश संगीत और वाद्य की महफिले ढूँढ़ेगा, (3) वाद्य श्रवण की लालसा से राग और मोह, तथा श्रवणेन्द्रिय विषयासक्ति और तत्पश्चात् कर्मबन्ध खरमही का अर्थ निशीथति में किया गया है-..-"खरमुखी काहला, तस्स मुहत्थाणे खरमुहाकार कट्ठमय मुहं कज्जति ।'-खरमुखी उसे कहते हैं, जिसके मुख के स्थान में गर्दभमुखाकार काष्ठमय मुख बनाया जाता है। 2. 'परिपिरिया' का अर्थ निशीथ चूणि में किया गया है—'परिपिरिया तततोण सलागातो सुसिराओ जमलाओ संधाडिज्जति मुहमले एममुहा सा संखागारेण वाइज्जमाणी जुगवं तिणि सद्दे परिपिरिती करेति / ' -परिपरिया विस्तृत तण शलाकासे पोला पोला समणि में इकट्ठी की जाती है / मुख के मूल में एकमुखी करके उसे शंखाकृति रूप में बजाई जाने पर एक साथ तीन शब्द परिपिरिया करती है। –निशीथ चणि उ०१७ 10201 17 इसके बदले पाठान्तर है-पिरिपिरिसहाणि / 3. सहाई के आगे 'झसिराइ' पाठ किसी-किसी प्रति में नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org