________________ 140 आचारांग सूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध कर्मों से) स्वतः उपरत हैं, लोक जैसा है उसे वैसा ही देखते हैं, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर--सभी दिशाओं में भली प्रकार सत्य में स्थित हो चुके हैं, उन वीर समित, सहित, सदा यतनाशील, शुभाशुभदर्शी, स्वयं उपरत, लोक के यथार्थ द्रष्टा, ज्ञानियों के सम्यग् ज्ञान का हम कथन करेंगे, उसका उपदेश करेंगे। (ऐसे) सत्यद्रष्टा वीर के कोई उपाधि (कर्मजनित नर-नारक आदि विशेषण) होती है या नहीं होती? नहीं होती। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस उद्देशक में सम्यक्चारित्र की साधना के सन्दर्भ में प्रात्मा के साथ शरीर और शरीर से सम्बद्ध बाह्य पदार्थों के संयोगों, मोहबन्धनों, आसक्तियों, रागद्वेषों एवं उनसे होने वाले कर्मबन्धों का त्याग करने की प्रेरणा दी गयी है / 'आवोलए पवीलए णिप्पीलए'—ये तीन शब्द मुनि-जीवन की साधना के क्रम को सूचित करते हैं / आपीडन, प्रपीडन और निष्पीडन, ये क्रमशः मुनि-जीवन की साधना की तीन भूमिकाएँ हैं। ___ मुनि-जीवन की प्राथमिक तैयारी के लिए दो बातें अनिवार्य हैं, जो इस सूत्र में सूचित की गई हैं . 'जहित्ता पुटवसांजोग, हिच्चा उवसम'--(१) मुनि-जीवन को अंगीकार करने से पूर्व के धनधान्य, जमीन-जायदाद, कुटुम्ब-परिवार आदि के साथ बंये हुए ममत्व-सम्बन्धों-संयोगों का त्याग एवं (2) इन्द्रिय और मन (विकारों) की उपशान्ति / . प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद मुनि साधना की तीन भूमिकाओं से गुजरता है—प्रथम भूमिका दीक्षित होने से लेकर शास्त्राध्ययन काल तक की है / उसमें वह संयमरक्षा एवं शास्त्राध्ययन के हेतु आवश्यक तप (आयंबिल-उपवास यादि) करता है / यह 'पापीडन' है। उसके पश्चात् दूसरी भूमिका अाती है-शिष्यों या लघु मुनियों के अध्यापन एवं धर्म प्रचार-प्रसार की। इस दौरान वह संयम की उत्कृष्ट साधना और दीर्घ तप करता है / यह 'प्रपीडन' है। इसके बाद तीसरी भूमिका आती है शरीरत्याग की / जब मुनि प्रात्म-कल्याण के साथ--कल्याण की साधना काफी कर चुकता है और शरीर भी जीर्ण-शीर्ण एवं वृद्ध हो जाता है, तब वह समाधिमरण की तैयारी में संलग्न हो जाता है। उस समय दीर्घकालीन (मासिक-पाक्षिक आदि) बाह्य और पाभ्यन्तर तप, कायोत्सर्ग, उत्कृष्ट त्याग आदि की साधना करता है / यह निष्पीडन' है। साधना की इन तीनों भूमिकामों में बाह्य-ग्राभ्यन्तर तप एवं शरीर तथा आत्मा का भेद-विज्ञान करके तदनुरूप स्थूल शरीर के अापीडन, प्रपीडन और निष्पीडन की प्रेरणा दी गयी है।' 1. पायारो (मुनि नथमलजी) पृ. 171 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org