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________________ 139 चतुर्थ अध्ययन : चतुर्थ उदेशक : सूत्र 143-146 (पंच समितियों से-) समित, (ज्ञानादि से-) सहित, (कर्मविदारण में-) वीर होकर (इन्द्रिय और मन का) संयमन करे / अप्रमत्त होकर जीवन-पर्यन्त संयम-साधन करने वाले, अनिवृत्तगामी (मोक्षार्थी) मुनियों का मार्ग अत्यन्त दुरनुचर (चलने में अति कठिन) होता है। (संयम और मोक्षमार्ग में विघ्न करने वाले शरीर का) मांस और रक्त (विकट तपश्चरण द्वारा) कम कर / ___ यह (उक्त विकट तपस्वी) पुरुष संयमी, रागद्वष का विजेता होने से पराकमी और दूसरों के लिए अनुकरणीय आदर्श तथा मुक्तिगमन के योग्य (द्रव्यभूत) होता है / वह ब्रह्मचर्य में (स्थित) रहकर शरीर या कर्मशरीर को (तपश्चरण प्रादि) से) धुन डालता है। 144. नेत्र आदि इन्द्रियों पर नियन्त्रण-संयम का अभ्यास करते हुए भी जो पुनः (मोहादि उदयवश) कर्म के स्रोत-इन्द्रियविषयादि (आदान स्रोतों) में गृद्ध हो जाता है तथा जो जन्म-जन्मों के कर्मबन्धनों को तोड़ नहीं पाता, (शरीर तथा परिवार आदि के-) संयोगों को छोड़ नहीं सकता, मोह-अन्धकार में निमग्न वह बालअज्ञानी मानव अपने आत्महित एवं मोक्षोपाय को (या विषयासक्ति के दोषों को) नहीं जान पाता / ऐसे साधक को (तीर्थंकरों को) आज्ञा (उपदेश) का लाभ नहीं प्राप्त होता। ऐसा मैं कहता हूँ। 145. जिसके (अन्तःकरण में भोगासक्ति का--) पूर्व-संस्कार नहीं है. और पश्चात् (भविष्य) का संकल्प भी नहीं है, बीच में उसके (मन में विकल्प) कहाँ से होगा? (जिसकी भोगाकांक्षाएँ शान्त हो गई है) वही वास्तव में प्रज्ञानवान् है, प्रबुद्ध है और आरम्भ से विरत है। (भोगाकांक्षा से निवृत्ति होने पर ही सावद्य प्रारम्भ--हिंसादि से निवृत्ति होती है) यह सम्यक् (सत्य) है, ऐसा तुम देखो----सोचो / (भोगासक्ति के कारण) पुरुष बन्ध, वध, घोर परिताप और दारुण दुःख पाता है। (अतः) पापकों के बाह्य (-परिग्रह आदि) एवं अन्तरंग (-राग, द्वेष, मोह आदि) स्रोतों को बन्द करके इस संसार में मरणधर्मा प्राणियों के बीच तुम निष्कर्मदर्शी (कर्ममुक्त-अमृतदर्शी) बन जायो। कर्म अपना फल अवश्य देते हैं, यह देखकर ज्ञानी पुरुष उनसे (कर्मों के बन्ध, संचय या प्रास्रव से) अवश्य ही निवृत्त हो जाता है। 146. हे पार्यो ! जो साधक वीर हैं, पांच समितियों से समित-सम्पन्न हैं, ज्ञानादि से सहित हैं, सदा संयत हैं, सतत शुभाशुभदर्शी (प्रतिपल जागरूक) हैं, (पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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