________________ चतुर्थ अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 143-146 141 - यह तपश्चरण कर्मक्षय के लिए होता है, इसलिए कर्म था कार्मणशरीर का पीडन भी यहाँ अभीष्ट है। वृत्तिकार ने गुणस्थान से भी इन तीनों भूमिकाओं का सम्बन्ध बताया है / अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में कर्मों का आपीडन हो, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिबादर गुणस्थानों में प्रपीडन हो / तथा सूक्ष्म-सम्पराय-गुणस्थान में निष्पीडन हो / अथवा उपशमश्रेणी में प्रापीडन, क्षपकश्रेणी में प्रपीडन एवं शैलेशी अवस्था में निष्पीडन हो।' * विगिच मंस-सोणितं-कहकर ब्रह्मचर्य साधक को मांस-शोणित घटाने का निर्देश दिया गया है। क्योंकि मांस-शोणित की वृद्धि से काम-वासना प्रबल होती है, उससे ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्न आने की सम्भावना बढ़ जाती है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसी आशय को स्पष्टता के साथ कहा गया है 'जहा दवग्गि परिधणे वर्ण, समारओ नोक्सम उवेइ / एविन्दियग्गी वि पगामभोइणो, न बंभयारिस्स हियाय कस्सई 1-32111 -जैसे प्रबल पवन के साथ प्रचुर इन्धन वाले वन में लगा दावानल शांत नहीं होता, इसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि (वासना) शांत नहीं होती। ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है / प्रकाम (रसयुक्त यथेच्छ भोजन) से मांस-शोणित बढ़ता है। शरीर में जब मांस और रक्त का उपचय नहीं होगा तो इसके बिना क्रमशः मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य का भी उपचय नहीं होगा। इस अवस्था में सहज ही प्रापीडन आदि की साधना हो जाती है। वसित्ता बभचेरसि'--ब्रह्मचर्य में निवास करने का तात्पर्य भी गहन है। ब्रह्मचर्य के चार अर्थ फलित होते हैं--(१) ब्रह्म (आत्मा या परमात्मा) में विचरण करना, (2) मैथुनविरति या सर्वेन्द्रिय-संयम और (3) गुरुकुलवास तथा (4) सदाचार / / यहाँ ब्रह्मचर्य के ये सभी अर्थ घटित हो सकते हैं किन्तु दो अर्थ अधिक संगत प्रतीत होते हैं-(१) सदाचार तथा (2) गुरुकुलवास / 'वसिता' शब्द 'गुरुकुल निवास' अर्थ को सूचित करता है। किन्तु यहाँ सम्यक-चारित्र का प्रसंग है। ब्रह्मचर्य चारित्र का एक मुख्य अंग है / इस दृष्टि से 'ब्रह्मचर्य' में रहकर अर्थ भी घटित हो सकता है / 2 'आयाणसोतगढिते'-इसका शब्दशः अर्थ होता है-'आदान के स्रोतों में गृद्ध' / 'पादान' का अर्थ कर्म है, जो कि संसार का बीजभूत होता है। उसके स्रोत (पाने के द्वार)-इन्द्रियविषय, मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इन आदान-स्रोतों में रात-दिन रचे-पचे रहने वाले अज्ञानी का अन्तःकरण राग, द्वेष और महामोहरूप अन्धकार से प्रावृत्त रहता है, उसे अर्हद्देव के प्रवचनों का लाभ नहीं मिल पाता, न उसे धर्मश्रवण में रुचि जागती है, न उसे 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / 175 / 2. आचा० शीला० टीका पत्रांक 175 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org