________________ आचारसंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध इष्ट-अनिष्ट शब्दादि विषयों के सभी पर्यायों (प्रकारों या विकल्पों) को, उनके संयोग-वियोग को शस्त्रभूत-असंयम को जानता है, वह संयम को अविघातक एवं स्वपरोपकारी होने से अशस्त्रभूत समझता है। शस्त्र और प्रशस्त्र दोनों को भलीभांति जानकर प्रशस्त्र को प्राप्त करता है, शस्त्र का त्याग करता है। लोक-संज्ञा का त्याग 110. अकम्मस्स ववहारो ण विज्जति / कम्मुणा' उवाधि जायति / 111. कम्मं च पडिलेहाए कम्ममूलं च जं छणं,' पडिलेहिय सव्वं समायाय दोहि अंतेहिं अदिस्समाणे तं परिण्णाय मेधावी विदित्ता लोग वंता लोगसण्णं से मतिमं परक्कमेज्जासि त्ति बेमि / // प्रथम उद्देशक समाप्त / / 110. कर्मों से मुक्त (अकर्म-शुद्ध) आत्मा के लिए कोई व्यवहार नहीं होता / कर्म से उपाधि होती है। 111. कर्म का भलीभांति पर्यालोचन करके (उसे नष्ट करने का प्रयत्न करे)। कर्म का मूल (मिथ्यात्व आदि और) जो क्षण-हिंसा है, उसका भलीभाँति निरीक्षण करके (परित्याग करे)। इन सबका (पूर्वोक्त कर्म और उनसे सम्बन्धित कारण और निवारण का) सम्यक् निरीक्षण करके संयम ग्रहण करे तथा दो (राग और द्वेष) अन्तों से अदृश्य (दूर) होकर रहे। 1. 'उहि', 'कम्मुणा उयधि', इस प्रकार के पाठान्तर भी मिलते हैं। चूर्णिकार ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है- "कम्मुणा उबधि, उवधी तिविहो- आतोवही, कम्मोवही, सरीरोवही तत्थ अप्पा दुप्पउत्तो आतोवही, ततो कम्मोवही भवति, ततो सरीरोवही भवति, सरीरोवहीओ य वयहरिजति, तंजहा""नेरइओ एवमादि।" कर्म से उपधि होती है। उपधि तीन प्रकार की है पात्मोपधि, कर्मोपधि और शरीरोपधि / जब प्रात्मा विषय-कषायादि में दुष्प्रयुक्त होता है, तब प्रात्मोपधि--- आत्मा परिग्रह रूप होता है। तब कर्मोपधि का संचय होता है और कर्म से शरीरोपधि होती है / शरीरोपधि को लेकर नै रयिक, मनुष्य आदि व्यवहार (संज्ञा) होता है। 2. 'कम्ममाहूय जं छणं' इस प्रकार का पाठान्तर मिलता है / उसका भावार्थ यह है कि जिस क्षण अज्ञान, प्रमाद आदि के कारण कर्मबन्धन की हेतु रूप कोई प्रवृत्ति हो जाय तो सावधान साधक तत्क्षण उसके मूल कारण की खोज करके उससे निवृत्त हो जाए। 3. 'पडिलेहिय सव्वं समायाय' इसके स्थान पर चूणि में 'पडिलेहेहि य सवं समायाए' पाठ मिलता है / इसका अर्थ है-भली-भाँति निरीक्षण-परीक्षण करके पूर्वोक्त कर्म और उसके सब उपादान रूप तत्त्वों का निवारण करे। 4. किसी-किसी प्रति में 'मतिम' (मइम) के स्थान पर 'मेधावी' शब्द मिलता है, उसका प्रसंगवश अर्थ किया गया है-मेधावी-मर्यादावस्थित होकर साधक संथम पालन में पराक्रम करे / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org