________________ खष्टम अध्ययन : चतुर्थे उद्देशक : सूत्र 213-124 सूत्र में इसी विषय पर प्रकाश डाला है। वृत्ति-संयम के साथ पदार्थ-त्याग का भी निर्देश किया है। प्रस्तुत दोनों सूत्र वस्त्र-पात्रदि रूप बाह्य उपधि और राग, द्वेष, मोह एवं प्रासक्ति आदि ग्राभ्यन्तर उपधि से विमोक्ष की साधना की दृष्टि से प्रतिमधारी या (जिनकल्पिक) श्रमण के विषय में प्रतिपादित हैं ; जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र (पात्रनियर्वेगयुक्त), इतनी उपधि रखने की अर्थात इस उपधि के सिवाय अन्य उपधि न रखने की प्रतिज्ञा लेता है, वह 'कल्पत्रय प्रतिमा-प्रतिपन्न' कहलाता है। उसका कल्पत्रय प्रौष-औपधिक होता है, प्रोपग्राहिक नहीं / शिशिर आदि शीत ऋतु में दो सूती (क्षौमिक) वस्त्र तथा तीसरा ऊन का वस्त्रयों कल्पत्रय स्वीकार करता है। जिस मुनि ने ऐसी कल्पत्रय की प्रतिज्ञा की है, वह मुनि शीतादि का परीषह उत्पन्न होने पर भी चौथे वस्त्र को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करे। यदि उसके पास अपनी ग्रहण की हुयी प्रतिज्ञा (कल्प) से कम वस्त्र हैं, तो वह दूसरा वस्त्र ले सकता है। पात्र-निर्योग-टीकाकार ने पात्र के सन्दर्भ में सात प्रकार के पात्र-निर्योग का उल्लेख किया है और पात्र ग्रहण करने के साथ-साथ पात्र से सम्बन्धित सामान भी उसी के अन्तर्गत माना गया है / जैसे 1, पात्र 2. पात्रबन्धन, 3. पात्र-स्थापन, 4. पात्र-केसरी (प्रमार्जनिक) 5. पटल, 6. रजस्त्राण अौर 7. पात्र साफ करने का वस्त्र-गोच्छक, ये सातों मिलकर पात्रनिर्योग कहलाते हैं। ये सात उपकरण तथा तीन पात्र तथा रजोहरण और मखवस्त्रिका, यों 12 उपकरण जिनकल्प की भूमिका पर स्थित एवं प्रतिमाधारक मुनि के होते हैं। यह उपधिविमोक्ष की एक साधना है।' उपधि-विमोक्ष का उद्देश्य-इसका उद्देश्य यह है कि साधु आवश्यक उपधि से अतिरिक्त उपधि का संग्रह करेगा तो उसके मन में ममत्वभाव जगेगा, उसका अधिकांश समय उसे संभालने, धोने, सीने प्रादि में ही लग जाएगा, स्वाध्याय, ध्यान ग्रादि के लिए नहीं बचेगा।' पथाप्राप्त वस्त्रधारग-इस प्रकार के उपधि-विमोक्ष की प्रतिज्ञा के साथ शास्त्रकार एक अनाग्रहवृत्ति का भी सूचन करते हैं। वह है जैसे भी जिस रूप में एषणीय-कल्पनीय वस्त्र मिलें, उसे वह उसी रूप में धारण करे, वस्त्र के प्रति किसी विशेष प्रकार का आग्रह संकल्पविकल्प पूर्ण बुद्धि न रखे। वह उन्हें न तो फाड़कर छोटा करे, न उनमें टुकड़ा जोड़कर बड़ा करे, न उसे धोए और न रंगे। यह विधान भी जिनकल्पी विशिष्ट प्रतिमासम्पन्न मुनि के लिए है। वह भी इसलिए कि वह साधु वस्त्रों को संस्कारित एवं बढिया करने में लग जाएमा तो उसमें मोह जागत होगा, और विमोक्ष साधना में मोह से उसे सर्वथा मुक्त होना है। स्थविरकल्पी मुनियों के लिए कुछ कारणों से वस्त्र धोने का विधान है, किन्तु वह भी विभूषा एवं 1. प्राचा० शीलाटीका पत्रोक 277 / पत्त पत्ता पायठवणं च पायकेसरिआ। पडलाइ रयत्ताणं च गोच्छो पायणिज्जोगो / / 2. पाचारांग (मा० श्री आत्माराम जी महाराज कृत टीका) पृ० 578 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org