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________________ 262 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्छ वस्थाई परिट्ठवैज्जा, अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिवेत्ता अदुआ संतरसरे, अदुवा ओमचेले, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले। लापवियं आगममाणे। तवे से अभिसमण्णागते भगति / जहेतं भगमता फोदितं तमेन अभिसमेच्या सग्यतो सत्ताए सम्माभैग' समभिजाणिया / ' 213. जो भिक्षु तीन वस्त्र और चौथा (एक) पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उसके मन मैं ऐसा अध्यवसाय नहीं होता कि "मैं चौथे वस्त्र की याचना करूंगा।" 214. वह यथा-एषीय (अपनी समाचारी मर्यादा के अनुसार ग्रहणीय) वस्त्रों की याचना करे और यथापरिगृहीत (जैसे भी वस्त्र मिले हैं या लिए हैं, उन) वस्त्रों को धारण करे। वह उन वस्त्रों को न तो धोए और न रंगे, न धोए-रंगे हुए वस्त्रों को धारण करे / दूसरे ग्रामों में जाते समय वह उन वस्त्रों को बिना छिपाए हुए चले। वह (अभिग्रहधारी) मुनि (परिणाम और मूल्य की दृष्टि से) स्वल्प और अतिसाधारण वस्त्र रखे / वस्त्रधारी मुनि की यही सामग्री (धर्मोपकरणसमूह) है। जब भिक्ष यह जान ले कि 'हेमन्त ऋतु' बीत गयी है, 'ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जिन-जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे, उनका परित्याग कर दे। उन यथापरिजी वस्त्रों का परित्याग करके या तो (उस क्षेत्र में शीत अधिक पड़ता हो तो) एक अन्तर (सूती) वस्त्र और उत्तर (ऊनी) वस्त्र साथ में रखे; अथवा वह एकशाटक (एक हो चादर-पछेड़ी वस्त्र) वाला होकर रहे / अथवा वह (रजोहरण और मुखवस्त्रिका के सिवाय सब वस्त्रों को छोड़कर) अचेलक निर्वस्त्र) हो जाएँ। (इस प्रकार) लाघवता (अल्प उपधि) को लाता या उसका चिन्तन करता हुअा वह (मुनि वस्त्र-परित्याग करे) उस वस्त्रपरित्यागी मुनि के (सहज में हो) तप (उपकरण-ऊनोदरी और कायक्लेश) सध जाता है। भगवान ने जिस प्रकार से इस (उपधि-विमोक्ष) का प्रतिपादन किया है, उसे उसी रूप में गहराई-पूर्वक जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (सम्पूर्ण रूप से) उसमें निहित) समत्व को सम्यक् प्रकार से जाने व कार्यान्वित करे। विवेचन--विमोक्ष (मुक्ति) की साधना में लीन श्रमण को संयम-रक्षा के लिए वस्त्रपात्र आदि उपधि भी रखनी पड़ती है। शास्त्र में उसकी अनुमति है। किन्तु अनुमति के साथ यह भी विवेक-निर्देश किया है कि वह अपनी आवश्यकता को कम करता जाय और उपधिसंयम बढ़ाता रहे, उपधि की अल्पता 'लाधव-धर्म' की साधना है। इस दिशा में भिक्षु स्वतः ही विविध प्रकार के संकल्प व प्रतिज्ञा लेकर उपधि आदि की कमी करता रहता है। प्रस्तुत 1. किसी प्रति में 'समत्त' शब्द है। उसका अर्थ होता है-समत्व / 2. किसी प्रति में 'समभिजागिया' के बदले 'समभिजाणिज्जा' शब्द मिलता है, उसका अर्थ है-सम्यक * रूप से जाने और आचरण करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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