________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्छ सौन्दर्य की दृष्टि से नहीं। शृगार और साज-सज्जा की भावना से वस्त्र ग्रहण करने, पहनने धोने आदि की प्राज्ञा किसी भी प्रकार के साधक को नहीं है; और रंगने का तो सर्वथा निषेध है ही। .... ओमचेले-'अवम' का अर्थ अल्प या साधारण होता है। 'अवम' शब्द यहाँ संख्या, परिमाण (नाप) और मूल्य-तीनों दृष्टियों से प्रत्यता या साधारणता का द्योतक है / संख्या में अल्पता का तो मूलपाठ में उल्लेख है ही, नाप और मूल्य में भी अल्पता या न्यूनता का ध्यान रखना आवश्यक हैं। कम से कम मूल्य के, साधारण से और थोड़े से वस्त्र से निर्वाह करने वाला भिक्षु 'अवमलक' कहलाता है। 'महापरिनुष्णाई वत्थाई परिट्ठज्जा यह सूत्र प्रतिमाधारी उपधि-विमोक्ष साधक की उपधि विमोक्ष की साधना का अभ्यास करने की दृष्टि से इंगित है। वह अपने शरीर को जितना कस सके कसे, जितना कम से कम वस्त्र से रह सकता है, रहने का अभ्यास करे / इसीलिए कहा गया है कि ज्यों ही ग्रीष्म ऋतु या जाए, साधक तीन वस्त्रों में से एक वस्त्र, जो अत्यन्त जीर्ण हो, उसका विसर्जन कर दे। रहे दो वस्त्र, उनमें से भी कर सकता हो तो एक वस्त्र कम कर दे, सिर्फ एक वस्त्र में रहे, और यदि इससे भो आगे हिम्मत कर सके तो बिलकुल वस्त्ररहित हो जाए। इसके साधक को तपस्या का लाभ तो है ही, वस्त्र सम्बन्धी चिन्तामों से मुक्त होने, लघुभूत (हलके-फुलके) होने का महालाभ भी मिलेगा। शास्त्र में बताया गया है कि पांच कारणों से अचेलक प्रशस्त होता है। जैसे कि(१) उसकी प्रतिलेखना अल्प होती है। (2) उसका लाधव प्रशस्त होता है।। . (3) उसका रूप (देश) विश्वास योग्य होता है। (4) उसका तप जिनेन्द्र द्वारा अनुज्ञात होता है। (5) उसे विपुल इन्द्रिय-निग्रह होता है / सम्मसमेव समभिजागिया-वृत्तिकार ने 'सम्मत्त" शब्द के दो अर्थ किये हैं-(१) सम्यक्त्व और समत्व / जहाँ 'सम्यक्त्व' अर्थ होगा, वहाँ इस वाक्य का अर्थ होगा-भगवत्कथित इस उपधि-विमोक्ष के सम्यक्त्व (सत्यता या सचाई) को भली-भाँति जानकर आचरण में लाए। जहाँ 'समत्व' अर्थ मानने पर इस वाक्य का अर्थ होगा-भगवदुक्त उपधि-विमोक्ष को सब प्रकार से सर्वात्मना जानकर सचेलक-अचेलक दोनों अवस्थाओं में समभाव का आचरण करे / 1. (क) प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 277, ... (ख) पाचारांग (आत्मारामजी महाराज कृत टीका पृ० 578 पर से। बा. शीला दीका पत्रांक 277 // प्राचा० शीला टीका पत्रांक 277-278 / (ख) स्थानांग, स्था० 5, उ० 3 सू० 201 / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 278 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org