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________________ अष्टम अध्ययन : उद्देशक : सूत्र 213-214 265 रीर-विमोक्ष : बहानसादिमरण 215. जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवति 'पुट्टो खलु अहमंसि, नालमहमंसि सीतफासं अहियासेत्तए', से वसुमं सव्वसमण्णागतपण्णाणेणं अप्पाणेणं केइ अफरणयायाए आउट्टे / तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमादिए / तत्थावि तस्स कालपरियाए। से वि तत्थ बियंतिकारए। इच्चेतं विमोहायतणं हियं सुहं खनं णिस्सेसं आणुगामियं वि बेमि / ॥चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ . 215. जिस भिक्षु को यह प्रतीत हो कि मैं (शीतादि परीषहों या स्त्री आदि के उपसगों से) प्राक्रान्त हो गया है. और मैं इस अनकल (शीत) परीषहों को सहन करने में समर्थ नहीं हूँ, (वैसी स्थिति में) कोई-कोई संयम का धनी (वसुमान्) भिक्षु स्वयं को प्राप्त सम्पूर्ण प्रज्ञान एवं अन्तःकरण (स्व-विवेक) से उस स्त्री आदि उपसर्ग के वश न होकर उसका सेवन न करने के लिए हट (-दूर हो) जाता है। उस तपस्वी भिक्षु के लिए वही श्रेयस्कर है, (जो एक ब्रह्मचर्यनिष्ठ संयमी भिक्षु को स्त्री आदि का उपसर्ग उपस्थित होने पर करना चाहिए) ऐसी स्थिति में उसे वैहानस (गले में फांसी लगाने की क्रिया, विषभक्षण, झपापात आदि से) मरण स्वीकार करना-श्रेयस्कर है / ऐसा करने में भी उसका वह (--मरण) काल-पर्याय-मरण (काल-मृत्यु) है। वह भिक्षु भी उस मृत्यु से अन्तक्रियाकर्ता (सम्पूर्ण कर्मों का क्षयकर्ता भी हो सकता है। इस प्रकार यह मरण प्राण-मोह से मुक्त भिक्षुओं का आयतन (पाश्रय), हितकर, सुखकर, कालोपयुक्त या कर्मक्षय-समर्थ, निःश्रेयस्कर, परकोक में साथ चलने वाला होता है / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-आपवादिक-मरण द्वारा शरीर-विमोक्ष-वैसे तो शरीर धर्म-पालन में अक्षम, असमर्थ एवं जीर्ण-शीर्ण, अशक्त हो जाए तो उस भिक्षु के द्वारा संल्लेखना द्वारा-समाधिमरण (भक्तपरिता, इंगितम रग एवं पादपोपगमन) स्वीकार करके शरीर-विमोक्ष करने का प्रोत्सगिक विधान है, किन्तु इसकी प्रक्रिया तो काफी लम्बी अवधि की है / कोई आकस्मिक कारण उपस्थित हो जाए और उसके लिए तात्कालिक शरीर-विमोक्ष का निर्णय लेना हो तो वह क्या करे ? इस प्रापवादिक स्थिति के लिए शास्त्रकारों ने वैहानस जैसे मरण की सम्मति दी है, और उसे भगवद् प्राज्ञानुमत एवं कल्याणकर माना है। धर्म-संकटापन्न आपवादिक स्थिति-शास्त्रकार तो सिर्फ सूत्र रूप में उसका संकेत भर 1. 'खम' के बदले 'खेम' शब्द किसी प्रति में मिलता है / क्षेम का अर्थ कुशल रूप है / 2. 'निस्से के बदले निस्से सिम' पाठान्तर है-'निःश्रेयसकर्ता।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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