________________ 266 आवारांग सूत्र-प्रथम भुतस्कन्छ करते हैं, वृत्तिकार ने उस स्थिति का स्पष्टीकरण किया है-कोई भिक्षु गृहस्थ के यहाँ भिक्षा के लिए गया / वहाँ कोई काम-पीड़िता, पुत्राकांक्षिणो, पूर्वाश्रम (गृहस्थ-जीवन) की पत्नी या कोई व्यक्ति उसे एक कमरे में उक्त स्त्री के साथ बन्द कर दे या उसे वह स्त्री रतिदान के लिए बहुत अनुनय विनय करे वह स्त्री या उसके पारिवारिकजन उसे भावभक्ति से, प्रलोभन से, कामसुख के लिए विचलित करना चाहें, यहाँ तक कि उसे इसके लिए विवश कर दे; अथवा वह स्वयं ही वातादि जनित काम-पीड़ा या स्त्री आदि के उपसर्ग को सहन करने में असमर्थ हो, ऐसी स्थिति में उस साधु के लिए झटपट निर्णय करना होता है, जरा-सा भी विलम्ब उसके लिए अहितकर या अनुचित हो सकता है। उस धर्मसंकटापन्न स्थिति में साधु उस स्त्री के समक्ष श्वास बन्द कर मृतकवत् हो जाए, अवसर पाकर गले से झूठ-मूठ फांसी लगाने का प्रयत्न करे, यदि इस पर उसका छुटकारा हो जाए तो ठीक, अन्यथा फिर वह गले में फांसी लगाकर, जीभ खींचकर मकान से कूदकर, झपापात करके या विष-भक्षण आदि करके किसी भी प्रकार से शरीर-त्याग कर दे, किन्तु स्त्री-सहवास आदि उपसर्ग या स्त्री-परिषह के वश न हो, किसी भी मूल्य पर मैथुन-सेवन प्रादि स्वीकार न करे / 22 परोषहों में स्त्री और सत्कार, ये दो शीत-परीषह हैं, शेष बीस परीषह उष्ण हैं।' —प्रस्तुत सूत्र में शीतस्पर्श, स्त्री-परीषह या काम-भोग अर्थ में ही अधिक संगत प्रतीत होता है / अतः यहाँ बताया गया है कि दीर्घकाल तक शीतस्पर्शादि सहन न कर सकने वाला भिक्षु सुदर्शन सेठ की तरह अपने प्राणों का परित्याग-कर दे। शास्त्रकार यही बात कहते हैं-'तवस्मिणो हु तं सेयं जमेगे विहमादिए'-अर्थात् उस तपस्वी के लिए बहुत समय तक अनेक प्रकार के अन्यान्य उपाय अजमाए जाने पर भी उस स्त्री आदि के चंगुल से छूटना दुष्कर मालूम हो, तो उस तपस्वी के लिए यही एकमात्र श्रेयरकर है कि वह वैहानस आदि उपायों में से किसी एक को अपना कर प्राणत्याग कर दे। ___ तत्थावि तस्स कालपरियांए यहाँ शंका हो सकती है कि वैहानस आदि मरण तो बालमरण कहा गया हैं, वर्तमान युग की भाषा में इसे आत्म-हत्या कहा जाता है, वह तो साधक के लिए वहान् अहितकारी है, क्योंकि उससे तो अनन्तकाल तक नरक आदि गतियों में परिभ्रमण करना पड़ता है।" इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-'तत्याधि ' ऐसे अवसर पर इस प्रकार वहानस या गद्धपृष्ठ आदि मरण द्वारा शरीर-विमोक्ष करने पर भी वह काल-मृत्यु होती है। जैसे काल-पर्यायमरण गुणकारी होता है, वैसे ही ऐसे अवसर पर वैहानसादि मरण भी गुणकारी होता है। जैनधर्म अनेकान्तबादी है / यह सापेक्ष दृष्टि से किसी भी बात के गुणावगुण पर विचार करता है / बह्मचर्य साधना (मैथुन-त्याग) के सिवाय एकान्तरूप से किसी भी बात का विधि या निषेध नहीं है; अपितु जिस बात का निषेध किया जाता है, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से उसका रवीकार भी किया जा सकता है। कालज्ञ साधु के लिए उत्सर्ग भी कभी दोषकारक 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 279 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org