________________ अष्टम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 216-217 267 और अपवाद भी गुणकारक हो जाता है। इसलिए कहा--'से वि तत्थ वियंतिकारए-तात्पर्य यह है कि क्रमशः भक्त परिज्ञा अनशन आदि करने वाला ही नही, वैहानसादि मरण को अपनाने वाले भिक्षु के लिए वहानसादि मरण भी औत्सर्गिक बन जाता है / क्योंकि इस मरण के द्वारा भी भिक्षु पाराधक होकर सिद्ध-मुक्त हुए हैं, होंगे। यही कारण है कि शास्त्रकार इस प्रापवादिक मरण को भी प्रशंसनीय बताते हुए कहते हैं---'इच्चेतं विमोहायतणं"।" यह उसके विमोह (वैराग्य का) केन्द्र, आश्रय है। // तइओ उद्देसओ समत्तो॥ पंचमो उदेसओ पंचम उद्देशक द्विवस्त्रधारी श्रमण का समाचार 216. जे भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिते पायततिहिं तस्स गं णो एवं भवति-ततियं वत्थं जाइस्सामि। 217. से अहेसणिज्आई वत्थाई जाएज्जा जाव' एयं खु तस्स भिक्खुस्स सामग्गिय / अह पुण एवं जाणेज्जा 'उवातिक्कते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवणे', अहापरिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठवेज्जा, अहापरिजुष्णाई वत्थाई परिवेत्ता अदुवा एगसाडे, अदुआ अचेले लावियं आगममाणे / तवे से अभिसमण्णाणते भवति / जहेयं भगवता पवेदितं / तमेव अभिसमेच्चा सव्वतो सम्बयाए सम्मत्तमेव समभिजाणिया। 216. जो भिक्षु जो वस्त्र और तीसरे (एक) पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है, उसके मन में यह विकल्प नहीं उठता कि मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूं। 217. (अगर दो वस्त्रों से कम हो तो) वह अपनी कल्पमर्यादानुसार ग्रहणीय वस्त्रों को याचना करे। इससे आगे वस्त्र-विमोक्ष के सम्बन्ध में पूर्व उद्देशक में"उस वस्त्रधारी भिक्षु की यही सामग्री है; तक वणित पाठ के अनुसार पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। यदि भिक्षु यह जाने कि हेमन्त ऋतु व्यतीत हो गयी है, ग्रीष्म ऋतु आ गयी है, तब वह जैसे-जैसे वस्त्र जीर्ण हो गए हों, उनका परित्याग कर दे। (इस प्रकार) यथा परिजीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो वह एक शाटक (आच्छादन पटचादर) में रहे, या वह अचेल (वस्त्र-रहित) हो जाए। (इस प्रकार) वह लाघवता का सर्वतोमुखी विचार करता हुआ (क्रमशः वस्त्र-विमोक्ष प्राप्त करे)। (इस प्रकार वस्त्र-विमोक्ष या अल्पवस्त्र से) मुनि को (उपकरण-अवमौदर्य एवं कायक्लेश) तप सहज ही प्राप्त हो जाता है / 1. नियुक्ति गाथा गा. 242 2. यहाँ 'जाव' शब्द के अन्तर्गत समग्र पाठ 214 सूत्रानुसार समझे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org