________________ 268 आसारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध भगवान् ने इस (वस्त्रविमोक्ष के तत्व) को जिस रूप में प्रतिपादित किया है, उसे उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वात्मना (उसमें निहित) समत्व को सम्यक प्रकार से जाने व क्रियान्वित करे। विवेचन-उपधि-विमोक्ष का द्वितीय कल्प-प्रस्तुत सूत्रों में उपधि-विमोक्ष के द्वितीय कल्प का विधान है। प्रथम कल्प का अधिकारी जिनकल्पिक के अतिरिक्त स्थविरकल्पी भिक्षु भी हो सकता था, किंतु इस द्वितीय कल्प का अधिकारी नियमत: जिनकल्पिक, परिहार विशुद्धिक, यथालन्दिक एवं प्रतिमा-प्रतिपन्न भिक्षुओं में से कोई एक हो सकता है।' यह भी उपधि-विमोक्ष की द्विकल्प साधना है। इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने वाले भिक्षु के लिए यह भी उचित है कि वह अन्त तक अपनी कृत प्रतिज्ञा पर दृढ रहे, उससे विचलित न हो / द्विवस्त्र-कल्प में स्थित भिक्षु के लिए बताया गया है कि वह दो वस्त्रों में से एक वस्त्र सूती रखे, दूसरा ऊनी रखे / ऊनी वस्त्र का उपयोग अत्यन्त शीत ऋतु में ही करे / ग्लान-अवस्था में आहार-विमोक्ष 218. जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवति-पुट्ठो अबलो अहमंसि, णालमहमंसि मिहंतरसंकमणं भिक्खायरियं गमणाए 3 से सेवं वदंतस्स परो अभिहडं असणं वा 4 आहट्ट दलएज्जा, से पुत्वामेव आलोएज्जा--आउसंतो गाहावती ! णो खलु मे कप्पति अभिहडं असणं वा 4 भोत्तए वा पातए वा अण्णे वा एतप्पगारे। 218. जिस भिक्षु को ऐसा प्रतीत होने लगे कि मैं (वातादि रोगों से) ग्रस्त 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 280 / 2. चणि में पाठान्तर है-'पुछो मंसि अबलो अहमसि गिहतर भिक्खायरिआए गमणा' अर्थात् (एफ तो) मैं वातादि रोगों से आक्रान्त हूँ, (फिर) शरीर से इतना दुर्बल----अशक्त हूं कि भिक्षाचर्या के लिए घर-घर जा नहीं सकता। 3. किसी प्रति में ऐसा याठान्तर मिलता है—'तं भिख केइ गाहावती उसंकमित्त बया-आउसंतो समणा ! अहं णं तव अट्ठाय असणं वा 4 अभिहडं दलामि। से पुवामेव जामेजा आउसंतो गाहाधई ! जण तम मम अटठाए असण वा 4 अभिह चेतेसि, जो य खल मे मप्पड एयप्पगारं अरण वा 4 भोत्तए वा पायए वा, अन्ने वा तहप्पगारे' अर्थात्-कोई गृहरति उन भिक्षु के पास पाकर कहे--प्रायुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए अशनादि आहार सामने लाक देता। वह पहले ही जान ले, (और कहे--) श्रायुध्मान् गृहपति ! जो तुम मेरे लिए आहार प्रादि अाकर देना चाहते हो, ऐसे या अन्य दोष से युक्त अशनादि माहार खाना या पीना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है / 4. चणि में इसके बदले पाठान्तर हैं---सिया से य वदंतस्स वि परो असणं वा 4 आहटु दलइज्जा इस प्रकार है---परो जे भणितं तं दुक्खं अकहेंतस्स परो...."अशुकम्पापरिणतोपाटु आगित्ता दलएज्जा-दद्यात् / अर्थात् ---कदाचित् ऐसा कहने पर दूसरा कोई (जो कहा हा, दुःख दूसरे को न कहने वाला अनुकम्मायुक्त गृहस्थ) अशनादि लाकर दे। 5. अभिहडं के अभिहृते या अभ्याहृतं दोनों रूप ससानार्थक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org