________________ अष्ठम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 218-219 होने से दुर्बल हो गया है। अत: मैं भिक्षाटन के लिए एक घर से दूसरे घर जाने में समर्थ नहीं हूँ। उसे इस प्रकार कहले हुए (सुनकर) कोई गृहस्थ अपने घर से अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य लाकर देने लगे। (ऐसी स्थिति में) वह भिक्षु पहले ही गहराई से विचारे और कहे)-'आयुष्मान् गृहपति ! यह अभ्याहत-(घर से सामने लाया हुआ) अशन, पान, खाद्य या स्वाद्य मेरे लिए सेवनीय नहीं है, इसो प्रकार दूसरे (दोषों से दूषित आहारादि भी मेरे लिए ग्रहणीय नहीं है)। विवेचन-लान द्वारा अभिहत आहार-निषेध--सू० 218 में ग्लान भिक्षु को भिक्षाटन करने की असमर्थता की स्थिति में कोई भावक भक्त उपाश्रय में या रास्ते में लाकर आहारादि देने लगे, उस समय भिक्ष द्वारा किए जाने वाले निषेध का वर्णन है। पुठो अबलो अहमपि - का तात्पर्य है----वात, पित्त, कफ आदि रोगों से प्राक्रान्त हो जाने के कारण शरीर से मैं दुर्बल हो गया है। शरीर की दुर्वलता का मन पर भी प्रभाव पड़ता है। इसलिए ऐसा असक्त भिक्षु सोचने लगता है—-मैं अब भिक्षा के लिए घर-घर घूमने में असमर्थ हो गया हूँ।' दुर्बल होने पर भी अनितदोष युक्त आहार-पानी न ले----इसी सूत्र के उत्तरार्ध का तात्पर्य यह है कि ऐसे भिक्ष को दूर्बल जान कर या सुनकर कोई भावुक हृदय गृहस्थादि अनुकम्पा और भक्ति से प्रेरित हाकर उसके लिए भोजन बनाकर उपाश्रयादि में लाकर देने लगे तो वह पहले सोच ले कि ऐसा सदोष प्रारम्भजनित आहार लेना मेरे लिए कल्पनीय नहीं है। तत्पश्चात् वह उस भावुक गृहस्थ को अपने प्राचार-विचार समझाकर उस दोष से या अन्य किसी भी दोष से युक्त आहार को लेने या खाने-पीने से इन्कार कर दे / शंका समाधान--जो भिक्षु स्वयं भिक्षा के लिए जा नहीं सकता, गृहस्थादि द्वारा लाया हुआ ले नहीं सकता, ऐसी स्थिति में वह शरीर को आहार-पानी कैसे पहुँचाएगा? इस शंका का समाधान अगले सूत्र में किया गया है / मालूम होता है-ऐसा साधु प्रायः एकलविहारी होता है। यावृत्य-प्रकल्प 219. जस्स ण भिक्खुस्स अयं पगये. (1) अहं च खलु पडिण्णत्तो अपडिष्णतेहिं गिलाणो अगिलाणेहि अभिकंख साधम्मिएहि कौरमाण वेयावडियं सातिजिरसामि, (2) अहं चावि खलु अपडिष्णत्तो५ पडिष्णत्तरस अगिलाणो गिलाणरस अभिकख साधम्मियरस उजा वेयावडियं करणाए। 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 280 / 2. आचा. शीला टीका पत्रांक 20 / 3. 'कम्पे' पाठान्तर है, अर्थ चूर्णि में यों है-कप्पो समाचारीमज्जाता (समाचारी-मर्यादा का नाम 4. इसके बदने चूणि में पाटान्तर है---'साहम्मियवेशावडियं कोरमाणं सातिजित्सामि' अर्थात् -सार्मिक (साध) द्वारा की जाती हई सेवा का महग करूगा। 5. 'अपडिण्णत्तं शब्द का अर्थ चूणि में यों हैं--प्रपडिपणत्तो णाम णाहं साहमियवेयावच्चे केण यि अभ स्थेय वो इति अपरिणत्तो / अर्थत--प्रतिज्ञात उसे कहते हैं, जो किसी भी साधर्मिक से वैयावृत्त्य की अपेक्षा-अभ्यर्थना नहीं करता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org