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________________ 346 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध 664. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को तेल, घी या चर्बी से चुपड़े, मसले तथा मालिश करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, न वचन व काया से उसे कराए। 695 कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को लोध, कर्क, चूर्ण या वर्ण से उबटन करे अथवा उपलेप करे तो साधु मन से भी उसमें रस न ले, न वचन एवं काया से उसे कराए। 666. कदाचित् कोई गृहस्थ साधु के चरणों को प्रासक शीतल जल से या उष्ण जल से प्रक्षालन करे, अथवा अच्छी तरह से धोए तो मुनि उसे मन से न चाहे, न वचन और काया से कराए। 667. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों का इसीप्रकार के किन्हीं विलेपन द्रव्यों से एक बार या बार-बार आलेपन-विलेपन करे तो साधु उसमें मन से भी रुचि न ले, न ही वचन और शरीर से उसे कराए। 668. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को किसी प्रकार के विशिष्ट धूप से धूपित और प्रधूपित करे तो उसे मन से भी न चाहे, न ही वचन और काया से उसे कराए। 666. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे हुए खूटे या कांटे आदि को निकाले या उसे शुद्ध करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से उसे कराए। 700. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में लगे रक्त और मवाद को निकाले या उसे निकाल कर शुद्ध करे तो साधु उसे मन में भी न चाहे और न ही वचन एवं काया से कराए। विवेचन-चरण परिकर्म रूप परक्रिया का सर्वथा निषेध-सूत्र 691 मे 700 तक दस सूत्रों में चरण-परिकर्म से सम्बन्धित विविध परक्रिया मन-वचन-काया से कराने का निषेध किया गया है। संक्षेप में, गृहस्थ द्वारा पाद-परिकर्मरूप परक्रिया निषेध इस प्रकार है-(१) एक बार या बार-बार चरणों को पोंछ कर साफ करे, (2) एक बार या बार-बार सम्मर्दन करे, (3) फंक मारने के लिए स्पर्श करे या रंगे, (4) तेल, घी आदि चपडे, मसले अथवा मालिश करे, (5) लोध आदि सगन्धित द्रव्यों से उबटन करे, लेप करे, (6) ठंडे या गर्म पानी में साधू के पैरों को एक बार या बार-बार धोए, (7) विलेपन-द्रव्यों से आलेपन-विलेपन करे, (8) साधु के चरणों के एक बार या बार-बार धूप दे, (6) साधु के पैरों में लगे हुए कांटे आदि को निकाले, और (10) साधु के पैरों में लगे घाव से रक्त, मवाद आदि को निकालकर साफ करे / साधु के लिए गृहस्थ द्वारा की जाने वाली ऐसी परिचर्या लेने का मन, वचन, काया से निषेध है / निशीथ सूत्र में इसीसे मिलता पाठ है।' गृहस्थ ऐसी चरण-परिचर्या लेने में हानि-(१) गृहस्थ द्वारा आरम्भ-समारम्भ किया जाएगा, (2) स्वावलम्बन वृत्ति छूट जाएगी, (3) परतंत्रता, परमुखापेक्षिता, चाटुकारिता और दीनता आने की सम्भावना है, (4) कदाचित् गृहस्थ परिचर्या का मूल्य चाहे जो अकिंचन 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 के आधार पर (ख) निशीथ सूत्र—उद्देशक 3 चूणि पृ० 212-213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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