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________________ तेरहवां अध्ययन : सूत्र 691-700 345 664. से से परो पादाई तेल्लेण वा धतेण वा वसाए वा मक्खेज्ज वा भिलिगेज्ज' वा णो तं सातिए जो तं णियमे। 695. से से परो लोद्धण वा कक्केण वा चुणेण वा वण्णेण वा उल्लोढेज्ज वा उब्वलेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 666. से से परो पादाइं सीओदगवियडेण वा उसिणोदवियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज बा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 697. से से परो पादाइं अण्णतरेण विलेवणजातेण आलियेज्ज वा विलिपेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे। 698. से से परो पादाई अण्णतरेण धूवणजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, णो तं सातिए जो तं णियमे। 666. से से परो पादाओ खाणुयं वा कंटयं वा णोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णो तं सातिए जो तं णियमे। 700. से से परो पादाओ पूर्व वा सोणियं वा णोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे। 661. कदाचित् कोई गृहस्थ धर्म-श्रद्धावश मुनि के चरणों को वस्त्रादि से थोड़ा-सा पोंछे, अथवा बार-बार अच्छी तरह पोंछ कर साफ करे, साधु उस परक्रिया को मन से न चाहे तथा वचन और काया से भी न कराए। 662. कदाचित् कोई गृहस्थ मुनि के चरणों को सम्मर्दन करे या दबाए तथा बारबार मर्दन करे या दबाए, साधु उस परक्रिया की मन से भी इच्छा न करे, न वचन और काया मे कराए। 663. यदि कोई गृहस्थ साधु के चरणों को फूंक मारने हेतु स्पर्श करे, तथा रंगे तो साधु उसे मन से भी न चाहे और न वचन एवं काया से कराए। 1. इसके बदले पाठान्तर हैं----भिलंगेज्ज बा, हिलंगेज्ज वा अभिंगेज्ज वा। 2. निशीष चणि उ०१३, में--..'कबकेण' आदि का अर्थ-"कक्को सो दब्बसंजोगेण वा असंजोगेण बा भवति / लोद्धो रुक्खो, तस्स छल्ली लोद्ध' भन्नति / वन्नो पुण हिंगुलुगादी तेल्लमोइओ / चुन्नो पुण गम्भुणिगादि फला चुन्नी कता।" कल्क वह है, जो द्रव्यों के संयोग या असंयोग से होता है। लोद्ध वृक्ष होता है, उसकी छाल को भी लोद्ध कहते हैं। तेल में स्निग्ध हिंगलू आदि को वर्ण कहते हैं / सुगन्धित फल को चूर्ण करने पर चूर्ण कहते हैं / 3. 'उल्लोढेज्ज वा' के बदले में पठान्तर हैं---उल्लोडेज्ज वा 'उल्लोलेज्ज वा' 4. 'उच्छोलेज्ज' के बदले पाठान्तर हैं-'उज्जोलेज्ज,' उज्जलेज्ज उल्लोलेज्ज अर्थ है शरीर को उज्ज्वल करना साफ करना / इसके बदले पाठान्तर है-'से सिया परो पादाई" 6. धूयं वा धूवेज्ज, धूयं सोहेज्ज वा, 'धूएज्ज वा पधूएज्ज वा' ये तीन पाठान्तर इसके मिलते हैं। 7. इसके स्थान पर सर्वत्र से सिया परो' पाठान्तर मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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