________________ तेरसमं अज्झयणं 'परकिरिया' सत्तिक्कओ पर-क्रिया सप्तक : त्रयोदश अध्ययन : षष्ठ सप्तिका पर-क्रिया-स्वरूप 690. परकिरियं अत्थियं संसेइयं णो तं सातिए णो तं णियमे / 690. पर अर्थात् गृहस्थ के द्वारा आध्यात्मिकी अर्थात् मुनि के शरीर पर की जाने वाली कायव्यापाररूपी क्रिया (सांश्लेषिणी) कर्मबन्धन जननी है, (अत:) मुनि उगे मन से भी न चाहे, न उसके लिए वचन से कहे, न ही काया से उसे कराए। विवेचन-परक्रिया और उसका परिणाम-प्रस्तुत सूत्र में परक्रिया क्या है, वह क्यों निषिद्ध है ? वह आचरणीय क्यों नहीं है ? इसका निर्देश किया गया है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार-पर अर्थात् गृहस्थ के द्वारा की जाने वाली क्रिया-चेष्टा, व्यापार या कर्म, परक्रिया हैं, वह परक्रिया (पर द्वारा की जाने वाली क्रिया) तभी है, जब वह आध्यात्मिकी (अपने आप पर-साधु के शरीर पर की जा रही हो) ऐसी परक्रिया, जो अपने आप पर होती हो, वह कर्म संश्लेषिको कर्मबन्ध का कारण तब होती है, जब दूसरे (गृहस्थ) द्वारा की जाते समय मन से उसमें स्वाद या रुचि ले, मन से चाहे या कहकर करा ले या कायिक संकेत द्वारा करावे। अतः साधु इसे न तो मन से चाहे, न वचन और काया से कराए। इस सूत्र में तीन बातें फलित होती है---१. परक्रिया की परिभाषा, 2. साधु के लिए उससे हानि, और 3. मन-वचन-काया से उसे अपने आप पर कराने का निषेध / अन्मत्थियं-आदि पदों की व्याख्या-अज्यत्थियं = आत्मा-अपने (मुनि के) शरीर पर की जाने वाली। संसेइयं = कर्म-संश्लेषकारिणी / णो सातिए = स्वाद/रुचि न ले, मन से न चाहे / णो णियमे = वचन-काया से प्रेरणा न करे, अर्थात्--न कराए।' पाद परिकर्म-परक्रिया निषेध : 661. से से परो पावाई आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, णो तं सातिए णोतं णियमे। 692. से से परो पादाई संबाधेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, [णो तं सातिए णो तं णियमे / 663. से से परो पावाई फुमेज्ज वा रएज्ज वा, णो तं सातिए णो तं णियमे / 1. परकिरिया परेण कीरमाणं कम्म भवति-आचा० चूर्णि 2. (क) आचारांग वृत्ति मू० पा० टि० पृष्ठ 250 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 3. आचारांग वृत्ति पत्रांक 416 4. इसके बदले 'से सियाई परो' 'से सिते परो' 'से सिया परोपाठान्तर हैं। अर्थ समान हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org