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________________ षष्ठ अध्ययन : द्वितीय उदेशक : सूत्र 186 211 पड़ने पर मन में जो प्रात-रौद्र-ध्यान आ जाते हैं, या विरोधी के प्रति दुश्चिन्तन होने लगता है, अथवा मन चंचल और क्षुब्ध होकर असंयम में भागने लगता है, अथवा मन में कुशंका पैदा हो जाती है कि ये जो परीषह और उपसर्ग के कष्ट मैं सह रहा हूँ, इसका शुभ फल मिलेगा या नहीं ?" इत्यादि समस्त विस्रोतसिकाओं को धूतवादी सम्यग्दर्शी मुनि त्याग दे।' 'अणागमणम्मिणो-जो साधक पंचमहाव्रत और सर्वविरति चारित्र (संयम) की प्रतिज्ञा का भार जीवन के अन्त तक वहन करते हैं, परीषहों और उपसर्गों के समय हार खाकर पुनः गृहस्थलोक या स्वजनलोक-(गृह-संसार) की ओर नहीं लौटते; न ही किसी प्रकार की कामासक्ति को लेकर लौटना चाहते हैं, वे-- 'अनागमनधर्मो' कहलाते हैं। यहाँ शास्त्रकार उनके लिए कहते हैं- “एए भो पगिणावुत्ता, जे लोग सि अणागमनम्मिणो।' अर्थात् इन्हीं परीषहसहिष्णु निष्किचन निर्ग्रन्थों को 'भावनग्न' कहा गया है, जो लोक में अनागमनधर्मी हैं। आणाए मामगं धम्म' का प्रचलित अर्थ है-'मेरा धर्म मेरी प्राज्ञा में है। परन्तु 'पाजा' शब्द को यहाँ तृतीयान्त मानकर वृत्तिकार इस वाक्य के दो अर्थ करते हैं (1) जिससे सर्वतोमुखी ज्ञापन किया जाये-बताया जाये, उसे प्राज्ञा कहते हैं, आज्ञा से (शास्त्रानुसार या शास्त्रोक्त प्रादेशानुसार) मेरे धर्म का सम्यक् अनुपालन करे / अथवा . (2) धर्माचरणनिष्ठ साधक कहता है-'एकमात्र धर्म ही मेरा है, अन्य सब पराया है, इसलिए मैं आज्ञा से-तीर्थंकरोपदेश से उसका सम्यक् पालन करूंगा। . 'एस उत्तरवावे...' का तात्पर्य है--समस्त परीषहों और उपसगों के प्राने पर समभाव से सहना, मुनिधर्म से विचलित होकर पुनः स्वजनों के प्रति प्रासक्तिवश गहवास में न लौटनी, काम-भोगों में जरा भी आसक्त न होना, तप, संयम और तितिक्षा में दृढ़ रहना; यह उत्तरवाद है / यही मानवों के लिए उत्कृष्ट-धूतवाद कहा है / इसमें लीन होकर इस वाद का यथानिर्दिष्ट सेवन–पालन करता हुअा अादानीय-अष्ट-विधकर्म को, मूल उत्तर प्रकृतियों आदि सहित सांगोपांग जानकर मुनि-पर्याय (श्रमण-धर्म) में स्थिर होकर उस कर्म-समुदाय को प्रात्मा से पृथक् करे-उसका क्षय करे / यह शास्त्रकार का आशय है। _एकपर्या-निरूपण 186. इह एगेसि एमचरिया होति / तस्थितराइतरेहि कुलेहि सुद्ध सणाए सम्वेसणाए से मेधावो परिवए सुग्भि अदुवा दुभि / अदुवा तत्थ मेरवा पाणा पाणे किलेसंति / ते फासे पुट्ठो धोरो अषियासेज्जासि त्ति बेमि / 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 220 / 2. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 220 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 220 / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 220 / 5. 'तत्थ इयरासरेहि' पाठ मानकर चूर्णिकार ने अर्थ किया है---"इतराइतरं-इतरेतरं कमो गहितो ण उड्डड्डयाहि"-अन्यान्य या भिन्न-भिन्न कुलों से..."यहाँ इतरेतर शब्द से भिन्न-भिन्न कर्म या क्रम का ग्रहण किया गया है / यहाँ कर्म का अर्थ व्यवसाय या धंधा है। विभिन्न धंधों वाले परिवारों से"""अथवा भिक्षाटन के समय क्रमशः भिन्न-भिन्न कूलों से....."बिना क्रम के अंट-संट नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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