________________ 112 माचारोग सूत्र-प्रथम तस्कर 186. इस (निर्ग्रन्थ संघ) में कुछ लघुकर्मी साधुनों द्वारा एकाकी चर्या (एकल-विहार-प्रतिमा की साधना) स्वीकृत की जाती है। उस (एकाकी-विहार-प्रतिमा) में वह एकल-विहारी साधु विभिन्न कुलों से शुद्धएषणा और सर्वेषणा (आहारादि की निर्दोष भिक्षा) से संयम का पालन करता है। वह मेधावी (ग्राम आदि में) परिव्रजन (विचरण) करे।। सुगन्ध से युक्त या दुर्गन्ध से युक्त (जैसा भी आहार मिले, उसे समभाव से ग्रहण या सेवन करे) अथवा एकाकी विहार साधना से भयंकर शब्दों को सुनकर या भयंकर रूपों को देखकर भयभीत न हो। हिंस्र प्राणी तुम्हारे प्राणों को क्लेश (कष्ट) पहुँचाएँ; (उससे विचलित न हो)। उन स्पर्शों (परीषहजनित-दुःखों) का स्पर्श होने पर धीर मुनि उन्हें 'सहन करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–पूर्व सूत्रों में धूतवाद का सम्यक् निरूपण कर उसे 'उत्तरवाद'--श्रेष्ठ आदर्श सिद्धान्त के रूप में प्रस्थापित किया है / धूतवादी का जीवन कठोर साधना का मूर्तिमंत रूप है, अनासक्ति की चरम परिणति है / यह प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। 'सुद्ध समाए सन्देसगाए'-ये दो शब्द धूतवादी मुनि के आहार-सम्बन्धी सभी एषणामों से सम्बन्धित हैं / एषणा शब्द यहाँ तष्णा, इच्छा, प्राप्ति या लाभ अर्थ में नहीं है, अपितु साधु को एक समिति (सम्यक्प्रवृत्ति) है, जिसके माध्यम से वह निर्दोष भिक्षा ग्रहण करता है। अतः 'एक्मा' शब्द यहाँ निर्दोष आहारादि (भिक्षा) की खोज करना, निर्दोष भिक्षा या उसका ग्रहण करना, निर्दोष भिक्षा का अन्वेषण-गवेषण करना, इन अर्थों में प्रयुक्त है / एषणा के मुख्यतः तीन प्रकार हैं:-(१) गवेषणैषणा, (2) ग्रहणषणा, (3) ग्रासैषणा या परिभोगैषणा / गवेषणषणा के 32 दोष हैं–१६ उद्गम के हैं, 16 उत्पादना के हैं। ग्रहणेषणा के 10 दोष हैं और ग्रासैषणा के 5 दोष हैं। इन 47 दोषों से बचकर आहार, धर्मोपकरण, शय्या आदि वस्तुओं का अन्वेषण, ग्रहण और उपभोग (सेवन) करना शुद्ध एषणा कहलाती है। आहारादि के अन्वेषण से लेकर सेवन करने तक मुनि की समस्त एषणाएँ शुद्ध होनी चाहिए, यही इस पंक्ति का आशय है।' 1. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 220, (ख) उत्तरा० अ० 24 गा० 11-12, (ग) पिण्डनियुक्ति गा० 92-93, गा० 408 पिण्डनियुक्ति में औद्द शिक' आदि 16 उद्गम-गवेषणा के दोषों का तथा 16 उत्पादना-गवेषणा के दोषों (धाइ-दुई-निमित्त प्रादि) का वर्णन है। शंकित आदि 10 ग्रहणषणा (एषणा) के दोष हैं तथा संयोजना अप्रमाण अादि 5 दोष ग्रासषणा के हैं। कुल मिलाकर एषणा के ये 47 दोष हैं। उदगम दोषों का वर्णन स्थानांग (9162) उत्पादना दोषों का निशीथ (12) दशवकालिक (5) तथा संयोजना दोषों का वर्णन भगवती (71) आदि स्थानों पर भी मिलता है। विस्तार के लिए देखें इसी सूत्र में पिडषणा अध्ययन सूत्र 324 का विवेचन / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org