________________ पाठ अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 187 213 एकचर्या और भयंकर परीषह-उपसर्ग-धूतवादी मुनि कर्मों को शीघ्र क्षय करने हेतु एकल विहार प्रतिमा अंगीकार करता है / यह साधना सामान्य मुनियों की साधना से कुछ विशिष्टतरा होती है। एकचर्या की साधना में मुनि की सभी एषणाएं शुद्ध हों, इसके अतिरिक्त मनोज्ञअमनोज्ञ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के प्राप्त होने पर राग और द्वेष न करे। एकाकी साधु को रात्रि में जन-शून्य स्थान या श्मशान आदि में कदाचित् भूत-प्रेतों, राक्षसों के भयंकर रूप दिखाई दें या शब्द सुनाई दें या कोई हिंस्र या भयंकर प्राणी प्राणों को क्लेश पहुँचाएँ, उस समय मुनि को उन कष्टों का स्पर्श होने पर तनिक भी क्षुब्ध न होकर धैर्य से समभावपूर्वक सहना चाहिए; तभी उसके पूर्व संचित कर्मों का धूनन-क्षय हो सकेगा।' // बिइओ उद्देसओ समत्तो / तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक उपकरण-लाधव 187. एतं खु मुणी आवाणं सदा सुअक्खातषम्मे विधतकप्पे णिज्झोसइत्ता / / जे अचेले परिसिते तस्स णं भिक्खुस्स गो एवं भवति–परिजुणे मे बत्थे, वत्यं जाइ. स्सामि, सुत्त जाइस्सामि, सूई जाइस्सामि, संघिस्सामि, सीविस्सामि, उक्कसिस्सामि, वोकसिस्सामि , परिहिस्सामि, पाउणिस्सामि / 1. आचा• शोला टीका पत्रांक 220 / 2. चूणिमान्य पाठान्तर इस प्रकार हैं--'एस मुणी आदाणं' अर्थ-एस त्ति जं भणितं 'ते फा० पुट्ठो अहियासए' एस तव तित्थगराओ आणा ।"एसा ते जा भाणिता वक्खमाणा य, मुणी भगवं सिस्सामंतणं वा, प्राणप्पत इति प्राणा, जं भणितं उक्देसो।"---यहा 'एस' से तात्पर्य हैं-जो (अभी-अभी) कहा गया था, कि उन स्पर्शों के प्रा पड़ने पर मुनि समभाव से सहन करे या मागे कहा जाएगा, यह तुम्हारे लिए तीर्थंकरों की प्राज्ञा है-प्राज्ञापन है-उपदेश है। मुणी शब्द मुनि के लिए सम्बोधन का प्रयोग है कि 'हे मुनि भगवान् !' अथवा शिष्य के लिए सम्बोधन हैं-“हे मुने !" 'आताणं आयाणं नाणातियं' (अथवा) प्रादान का अर्थ है-(तीर्थंकरों की ओर से) ज्ञानादिरूप प्रादानविशेष सर्वतोमुखी दान है। 3. चूर्णिकार ने "वियतकम्पो निजमोसतित्ता' पाठ मानकर अर्थ किया है ---"णियतं णिच्छितं वा झोसइत्ता, महवा जूसी प्रीतिसेवणयो णियत णिच्छित वा झोसतिता, जं भणितं णिसेवतिता फास इत्ता पालयित्ता।"-नियत या निश्चित रूप से मुनि पादान को (उपकरणादि को) कम करके पादान = कर्म को सूखा दे--- हटा दे। अयवा जुष धातु प्रीति और सेवन के अर्थ में भी है। नियत किये हुए या निश्चित किये हुए संकल्प या जो कहा है- उस वचन का मुनि सेवन-पालन या स्पर्श करे। चणि में 'प्रवकरिसणं वोक्कसणं, पियंसणं पियसिसामि उवरि पाउरणं'। इस प्रकार प्रर्थ किया गया है। अपकर्षण (कम करने) को व्युत्कर्षण कहते हैं / ऊपर ओढ़ने के वस्त्र को पहनूगा / इससे मालम होता है-चूर्णि में 'बोक्कसिस्सामि णियंसिस्सामि पाउणिस्सामि' पाठ अधिक है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org