________________ 21. आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 'सर्वतः मुण्ड' होना बताया है। स्थानांगसूत्र में क्रोधादि चार कषायों, पांच इन्द्रियों एवं सिर से मुण्डित होने (विकारों को दूर करने वाले को सर्वथा मुण्ड कहा गया है।' ___ वध, आक्रोश आदि परीषहों के समय धृतवादी मुनि का चिन्तन- वृत्तिकार ने स्थानांगसूत्र का उद्धरण देकर पांच प्रकार से चिन्तन करके परीषह सहन करने की प्रेरणा दी है--- (1) यह पुरुष किसी यक्ष (भूत-प्रेत) आदि से ग्रस्त है / (2) यह व्यक्ति पागल है। (3) इसका चित्त दर्य से युक्त है। (4) मेरे ही किसी जन्म में किये हुए कर्म उदय में आए हैं, तभी तो यह पुरुष मुझ पर आक्रोश करता है, बांधता है, हैरान करता है, पीटता है, संताप देता है। (5) ये कष्ट समभाव से सहन किये जाने पर एकान्ततः कर्मों की निर्जरा (क्षय) होगी। तितिक्खमाले परिवए जेय हिरी जे य अहिरीमणा' - इस पंक्ति का भावार्थ स्पष्ट है। परीषहों और उपसर्गों को समभाव से सहन करता हुया मुनि संयम में विचरण करे / इससे पूर्व परीषह के दो प्रकार बताए गए हैं - अनुकूल और प्रतिकूल / जिनके लिए "एगतरे-अच्णतरे' शब्द प्रयुक्त किए गए हैं। इस पंक्ति में भी पुनः परीषह के दो प्रकार प्रस्तुत किए गए हैं"हिरो' और 'अहिरीमणा'। 'ही' का अर्थ लज्जा है। जिन परीषहों से लज्जा का अनुभव हो, जैसे याचना, अचेल आदि वे 'होजनक' परीषह कहलाते हैं तथा शीत, उष्ण आदि जो परीषह अलज्जाकारी हैं, उन्हें 'अहोमना' परीषह कहते हैं। वसिकार ने 'हारीणा', 'अहारीणा' इन दो पाठान्तरों को मानकर इनके अर्थ क्रमशः यों किये हैं . सत्कार, पुरस्कार प्रादि जो परीषह साधु के 'हारी' यानी मन को आह्लादित करने वाले हैं, वे 'हारी' परीषह तथा जो परीषह प्रतिकूल होने के कारण मन के लिए अनाकर्षकअनिष्टकर हैं, वे 'अहारी' परीषह कहलाते है / धूतवादी मुनि को इन चारों प्रकार के परीषहों को समभावपूर्वक सहना चाहिए। _ 'चेच्चा सम्वं विसोसियं'-समस्त विस्रोतसिका का त्याग करके। 'विसोतिया' शब्द प्रतिकूलगति, विमार्गगमन, मन का विमार्ग में गमन, अपध्यान, दुष्टचिन्तन और शंका-- इन अर्थों में व्यवहृत होता है। यहाँ विसोत्तिय' शब्द के प्रसंगवश शंका, दुष्टचिन्तन, अपध्यान या मन का बिमार्गगमन-ये अर्थ हो सकते हैं। अर्थात् परीषह या उपसर्ग के आ 1. स्थानांगसूत्र स्था० 5 उ० 3 सू० 443 / 2. पंचहिं गणेहि छउमस्थे उप्पन्न परिसहोवसग्गे सम्म सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ तंजहा(१) जक्खाइट्टे अयं पुरिसे, (2) दत्तचित्त अयं पुरिसे, (3) उम्मायपत्त अयं पुरिसे, (4, मम च गं पुष्वम्भव वेअणोआणि कम्माणि उदिनाणि भवंति, जन्न एस पुरिसे आउसह बंधइ, तिप्पह, पितृह, परितावेइ, (5) मम चणं सम्मं सहमाणस जाव अहियासेमाणस्स एगंतसो कम्मणिज्जरा हवई। -----स्था० स्थान 5 उ० 1 सू० 73 3. प्राचाशीला टीका पत्रांक 219 / 4. पाइअसहमण्णवो' पृष्ठ 707 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org