________________ 250 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रूतस्कन्ध 571. से भिक्खू वा 2 से ज्ज पुण वत्थं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणयं अलं थिरं धुवं धारणिज्ज रोइज्जतं रुच्चति, तहप्पगारं वत्थं फासुयं जाव पडिगाहेजा। 566. साधु या साध्वी यदि ऐसे वस्त्र को जाने जो कि अण्डों में यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है, तो उसप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय मान कर प्राप्त होने पर भी ग्रहण न करे। 570. साधु या साध्वी यदि जाने कि यह वस्त्र अण्डों में यावत् मकड़ी के जालों में तो रहित है, किन्तु अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ है, अस्थिर (टिकाऊ नहीं) है, या जीर्ण है, अध्र व (थोड़े समय के लिए दिया जाने वाला) है, धारण करने के योग्य नहीं है, रुचि होने पर भी दाता और साध की उसमें रुचि न हो, तो उसप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक और अनेषणीय समझ कर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 571. साधु या साध्वी यदि ऐसा वस्त्र जाने, जो कि अण्डों से यावत् मकड़ी के जालों से रहित है, साथ ही वह वस्त्र अभीष्ट कार्य करने में समर्थ, स्थिर, ध्र व, धारण करने योग्य है, दाता की रुचि को देखकर साधु के लिए भी कल्पनीय हो तो उसप्रकार के वस्त्र को प्रासुक और एषणीय समझ कर प्राप्त होने पर साधु ग्रहण कर सकता है। विवेचन-वस्त्र ग्रहण-अग्रहण-विवेक--प्रस्तुत तीन सूत्रों में यह विवेक बताया गया है कि कौन-सा वस्त्र साधु को ग्रहण न करना चाहिए, और कौन-सा करना चाहिए ? ___ अग्राह्य वस्त्र--१. जो अंडे आदि जीव-जन्तुओं से युक्त हो, 2. अभीष्ट कार्य करने में असमर्थ हो, 3. अस्थिर हो, 4. अल्पकाल के लिए देय होने में अध्रुव हो, 5. धारण करने योग्य नहीं हो, 6. दाता की रुचि न हो, तो साधु के लिए वह कल्पनीय नहीं है। इसके विपरीत जीवादि से रहित, अभीष्ट-कार्य करने में समर्थ आदि कल्पनीय, प्रासुक और एषणीय वस्त्र को साधु ग्रहण कर सकता है।' वस्त्र ग्रहण-अग्रहण के 16 विकल्प-वृत्तिकार ने बताया है कि अणलं, अथिरं, अधुवं आधारणिज्ज इन चारों पदों के सोलह भग (विकल्प) होते हैं, इनमें प्रारम्भ के 15 भंग अशुद्ध हैं, सोलहवाँ भंग 'अलं, स्थिर, वं, धारणीयं' शुद्ध है / तात्पर्य यह है कि जो वस्त्र इन चारों विशेषणों से युक्त होगा, वही ग्राह्य होगा, अन्यथा, इन चारों में से यदि एक विशेषण से भी युक्त न होगा तो वह अशुद्ध और अग्राह्य माना जायेगा। 'अणलं' आदि पदों के अर्थ-- 'अणलं' =जो वस्त्र अभीष्ट (पहनने ओढ़ने वगैरह) कार्य के लिए अपर्याप्त-असमर्थ हो, यानी जिसकी लम्बाई-चौड़ाई कम हो। अथिर जो मजबूत और टिकाऊ न हो, जीर्ण हो, जल्दी ही फट जानेवाला हो। अधुवं जो प्रातिहारिक 1. आचारांग मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 366 के आधार पर / 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 366 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org