SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 702
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 566-71 246 568. कदाचित् वह गृहस्वामी (साधु के द्वारा याचना करने पर) वस्त्र (घर से लाकर) साधु को दे, तो वह पहले ही विचार करके उससे कहे-आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! तुम्हारे ही इस वस्त्र को मैं अन्दर-बाहर चारों ओर ले (खोलकर) भलीभाँति देखूगा, क्योंकि केवली भगवान कहते हैं- वस्त्र को प्रतिलेखना किये बिना लेना कर्मबन्धन का कारण है। कदाचित उस वस्त्र के सिरे पर कुछ बंधा हो, कोई कुण्डल बंधा हो, या धागा, चांदी, सोना, मणिरत्न, यावत् रत्नों की माला बंधी हो, या कोई प्राणी, बीज या हरी वनस्पति बंधी हो / इसीलिए भिक्षुओं के लिए तीर्थकर आदि आप्तपुरुषों ने पहले से ही इस प्रतिज्ञा, हेतु, कारण और उपदेश का निर्देश किया है कि साधु वस्त्र ग्रहण से पहले ही उस वस्त्र की अन्दर-बाहर चारों ओर से प्रतिलेखना करे / विवेचन-वस्त्र लेने से पूर्व भलीभाँति देखभाल लें-प्रस्तुत सूत्र में वस्त्र ग्रहण करने से पूर्व एक विशेष सावधानी की ओर संकेत किया है, वह है वस्त्र को पहले अन्दर-बाहर सभी कोनों से अच्छी तरह देख-भाल कर लें।' बिना प्रतिलेखन किये वस्त्र ले लेने से निम्नलिखित खतरों की सम्भावना है—(१) वस्त्र के पल्ले में कोई कीमती चीज बंधी हो, साधु को उसे रखने से परिग्रह दोष लगेगा; (2) गृहस्थ की वह चीज गुम हो जाने से उसे साधु पर शंका होगी, (3) वस्त्र बीच में से फटा हो तो फिर साधु का उस वस्त्र के ग्रहण करने का प्रयोजन सिद्ध न होगा, (4) वस्त्र को गृहस्थ ने साधु के लिए विविध द्रव्यों से सुवासित कर रखा हो, या उसमें बीच में फूलपत्ती आदि या चांदी सोने के बेलबूटे आदि किये हों। (5) उस वस्त्र में दीमक, खटमल, जूं, चींटी आदि कोई जीव लगा हो, बीज बंधे हों या हरी वनस्पति बंधी हो तो जीव-हिंसा की संभावना है। (6) किसी ने द्वेषवश उस वस्त्र पर विष लगा दिया हो. जिसे पहनते ही प्राण वियोग की संभावना हो / (7) उस वस्त्र की अपेक्षित लम्बाई-चौड़ाई न हो। इसीलिए साधु को उक्त वस्त्र अपनी निश्राय में लेने से पूर्व गृहस्थ से कहना चाहिए"तुमं चेव णं संतियं वत्थं अंतोअंतेण पडिलेहिस्सामि ।'-अर्थात् मैं प्रतिलेखन करता हूं तब तक यह वस्त्र तुम्हारे स्वामित्व का या तुम्हारा है..।' ग्राह्य-अग्राह्य-वस्त्र-विवेक 566. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा सअंडं जाव संताणं तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 570. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण वत्थं जाणेज्जा अप्पंडं जाव संताणगं अणलं अथिरं अधुवं अधारणिज्जं रोइज्जतं ण रुच्चति', तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 1. आचारांग मूल पाठ एवं वृत्ति पत्रांक 365 / 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 365 / 3. 'ण रुञ्चति' के बदले पाठान्तर है-'नो रोइज्ज, नो रोचद।' अर्थ समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy