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________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम देशक: सूत्र 231-246 अनशन का यह प्राचार-धर्म बताया है। इस अनशन में भिक्षु (मर्यादित भूमि के : बाहर) किसी भी अंगोपांग के व्यापार (संचार) का, अथवा उठने-बैठने प्रादि की क्रिया ..में अपने सिवाय किसी दूसरे के सहारे (परिया) का (तीन करण, तीन योग से) मन, वचन और काया से तथा कृत-कारित-अनुमोदित रूप से त्याग करे // 27 // ..... - 241. वह हरियाली पर शयन न करे, स्थण्डिल (हरित एवं जीव-जन्तुरहित स्पल) को देखकर वहाँ सोए। वह निराहार भिक्षु बाह्य एवं आभ्यन्तर उपधि का. - व्युत्सर्ग करके भूख-प्यास प्रादि परीषहों तथा उपसर्गों से स्पृष्ट होने पर उन्हें सहन करे // 28 // 242. पाहारादि का परित्यागी मुनि इन्द्रियों से ग्लान (क्षीण) होने पर.. समित (यतनासहित, परिमित मात्रायुक्त) होकर हाथ-पैर आदि सिकोड़े (पसारे); अथवा शमिता-शान्ति या समता धारण करे। जो अचल (अपनी प्रतिज्ञा पर अटल) : है तथा समाहित (धर्म-ध्यान तथा शुक्ल-ध्यान में मन को लगाये हुए) है, वह परिमित भूमि में शरीर-चेष्टा करता हुमा भी निन्दा का पात्र नहीं होता / / 29 // .... 243. (इस अनशन में स्थित मुनि बैठे-बैठे या लेटे-लेटे थक जाये तो) वह शरीर-संधारणार्थ गमन और पागमन करे, (हाथ-पैर आदि को) सिकोड़े और पसारे / . (यदि शरीर में शक्ति हो तो) इस (इंगितमरण अनशन) में भी अचेतन की तरह (निश्चेष्ट होकर) रहे // 30 // 244. (इस अनशन में स्थित मुनि) बैठा-बैठा थक जाये तो नियत प्रदेश में चले, या थक जाने पर बैठ जाए, अथवा सीधा खड़ा हो जाये, या सीधा लेट जाये। यदि खड़े होने में कष्ट होता हो तो अन्त में बैठ जाए // 31 // ... .. 245. इस अद्वितीय मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को सम्यकप से संचालित करे। (यदि उसे ग्लानावस्था में सहारे के लिए किसी काष्ठस्तम्भ या पट्ट की आवश्यकता हो तो) घुन-दीमकवाले काष्ठ स्तम्भ या पट्ट का सहारा न लेकर घुन आदि रहित व निश्छिद्र काष्ठ-स्तम्भ या पट्ट का अन्वेषण करे // 32 // 246. जिससे वज्रवत् कर्म या वयं-पाप उत्पन्न हों, ऐसी घुण, दीमक, आदि से युक्त वस्तु का सहारा न ले। उससे या दुर्ध्यान एवं दुष्ट योगों से अपने आपको हटा ले और उपस्थित सभी दुःखस्पर्शों को सहन करे // 33 // . विवेचन-निमान : स्वरूप, सावधानी और आन्तरिक विधि-सूत्र 239 से 246 तक की गाथामों में इंगितमरण का निरूपण किया गया है, जो समाधिमरण रूप अनशन का द्वितीय प्रकार है / भक्तप्रत्याख्यान से यह विशिष्टतर है। इसकी भी पूर्वतैयारी तथा संकल्प करने तक की क्रमशः सब विधि भक्तप्रत्याख्यान की तरह ही समझ लेनी चाहिए। इतना ही नहीं. भक्तप्रत्याख्यान में जिन सावधानियों का निर्देश किया है, उनसे इस अनशन में भी सावधान रहना आवश्यक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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