________________ 298 आचारांम सूत्र-प्रथम श्रतस्कन्ध इंगितमरण में कुछ विशिष्ट बातों का निर्देश शास्त्रकार ने किया है, जैसे कि इंगितमरण साधक अपना अंगसंचार, उठना, बैठना, करवट बदलना, शौच, लघशंका आदि समस्त शारीरिक कार्य स्वयं करता है। इतना ही नहीं, दूसरों के द्वारा करने, कराने, दूसरे के द्वारा किसी साधक के निमित्त किये जाते हुए अनुमोदन करने का भी वह मन, वचन, काया से त्याग करता है / वह संकल्प के समय निर्धारित भूमि में ही गमनागमन ग्रादि करता है, उससे बाहर नहीं / वह स्थण्डिलभूमि भी जीव-जन्तु, हरियाली प्रादि से रहित हो, जहाँ वह इच्छानुसार बैठे, लेटे या सो सके / जहाँ तक हो सके, वह अंगचेष्टा कम से कम करे / हो सके तो वह पादपोषगमन की तरह अचेतवत् सर्वथा निश्चेष्ट-निस्पन्द होकर रहे। यदि बैठा-बैठा या लेटालेटा थक जाये तो जीव-जन्तुरहित काष्ठ की पट्टी आदि किसी वस्तु का सहारा ले सकता है। किन्तु किसी भी स्थिति में प्रार्तध्यान या राग-द्वेषादि का विकल्प जरा मन में न आने दे / ' .: दिगम्बर परम्परा में यह 'इंगितमरण' के नाम से प्रसिद्ध है। भक्तपरिजा में जो प्रयोगविधि कही गयी है, वही यथासम्भव इस मरण में भी समझनी चाहिए। इसमें मुनिवर शौच आदि शारीरिक तथा प्रतिलेखन ग्रादि धार्मिक क्रियाएँ स्वयं ही करते हैं। जगत् के सम्पूर्ण पूद गल दुःखरूप या सुखरूप परिणमित होकर उन्हें सुखी या दुखी करने को उग्रत हों, तो भी उनका मन (शुक्ल) ध्यान से च्युत नहीं होता। वे वाचना, पृच्छनाः धर्मोपदेश, इन सबका त्याग करके सूत्रार्थ का अनुप्रेक्षात्मक स्वाध्याय करते हैं / मौनपूर्वक रहते हैं। तप के प्रभाव से प्राप्त लब्धियों का उपयोग तथा रोगादि का प्रतीकार नहीं करते / पैर में काँटा या नेत्र में रजकण पड़ जाने पर भी वे स्वयं नहीं निकालते / / प्रायोपगमन अनशन-रूप विमोक्ष 247. अयं चाततरे सिया जे एवं अगुपालए 1 सव्वगायणिरोधे विठाणातो ण वि उन्भमे / / 34 / / ... 248. अयं से उत्तमे धम्मे पुग्वट्ठाणस्स पग्महे / - अचिरं पडिलेहित्ता विहरे चिट्ठ माहणे / / 35 / / 1. प्राचा...शील टीका पत्रांक 291-292 } .... 2. जो मतपदिण्णाए उवक्कमो वणिदो सवित्थारो। सो चेव जधाजोग्गो उवक्कमो इणिोए.दि // 2030 // . ठिच्चा निसिदित्ता वा तुवट्टिदूण व सकायपडिचरणं। सयमेव निरुवसग्गे कुणदि विहारम्मि सो भयव // 2041 // सयमेव अपणो सो करेदि आउंटणादि किरियाओ। ': उच्चारादीणि तधा सयमेव विकिंचदे विधिणा // 2042 // --भगती पाराधना 3. 'अयं चाततरे सिया' का अर्थ चूणिकार ने किया है- “अत (अन्त) तरो, आतरो वा पाततसे। ' आयतरे-दढमाहतरे धम्मे-मरणधम्मे, इंगिणिमरणातो आयतरे उत्तमतरे / " अर्थात् -अंततर या अन्ततर ही प्राततर है। तात्पर्य यह है-पायतर यानी ग्रहण करने में दृढतर, धर्म-- मरणधर्म है यह। इंमिनिमरण में यह धर्म (पादपोपगमन)प्रायतर या उत्तमतर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org