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________________ अष्टम अध्ययन : अष्टम उद्देशक : सूत्र 247-253 299 249. अचित्त' तु समासज्ज ठावए तत्थ अप्पगं। योसिरे सव्वसो कायं ण मे देहे परीसहा // 36 // 250. जावज्जीवं परोसहा उत्सग्गा (य)इति संखाय / . संवुडे देहभेदाए इति पणेऽधियासए // 37 // 251. भिदुरेसु ण रज्जेज्जा कामेसु बहुतरेसु वि। इच्छालोभं ण सेवेज्जा धुववण्णं सपेहिया // 38 // 252. सासएहि णिमंतेज्जा दिग्वमायण सद्दहे। तं पडिबुज्झ माहणे सव्वं नम विधणिता / / 39 / / 253. सव्वट्ठहि अमुच्छिए आयुकालस्स पारए। तितिक्खं परमं गच्चा विमोहण्णतर हितं / / 40 // त्ति बेमि। / अष्टम विमोक्षाध्ययन समाप्तम् / / 1. इसके बदले चूर्णिकार ने पाठान्तर माना है--अचित्त तु समासज्ज तथावि किर कीरति / 2. इसका अर्थ चर्णिकार ने किया है—'परीसहा—दिगिछादि, उवभग्गा य अपलोमा पडिलोमा या इति संखाय-एवं संखाता तेण भवति, यदुक्तं तेन भवति नाता, अणहियासते पुण सुद्धते पड़च्च ण संखाता भवति / अहवा जावज्जीवं एते परीसहा उवसग्गा वि प मे मनस्स भविस्संतीति एवं संखाए अहियासए / अहवा परीसहा एव उवसग्गा, तप्युरिसो समासो। अहवा (परीसहा) उवसग्गा य जाबदेहभाविणो, ततो वच्चति-जावज्जीवं परीसहा, एवं संखाय, संवडे देहभेदाय"इति पणे अहियासए।" अर्थात्-परीषह = जुगुप्सा आदि तथा अनुकूल-प्रतिकूल उपसर्ग हैं, यह जानकर तात्पर्य यह है कि इस प्रकार उसके द्वारा ये ज्ञात हो जाते हैं / जो परीषह और उपसर्गों को सहन नहीं कर पाते। इस शुद्धता की अपेक्षा से संख्यात-संज्ञात नहीं होते। अथवा जीवनपर्य-त ये परीषह और उपसर्ग भी मेरे मानने के अनुसार नहीं होंगे, यों समझकर इन्हें सहन करे। अथवा तत्पुरुष समास मानने पर-परीषह ही उपसर्ग हैं, ऐसा अर्थ होता है। अथवा परीषह और उपसर्ग भी जब तक शरीर है, तभी तक है। इसीलिए कहते हैं जिदगी रहने तक ही तो परीषह हैं, ऐसा जानकर शरीरभेद के लिए समद्यत संवत प्राज्ञ भिक्षु इसे समभाव से सहन करे। 3. इसके बदले 'मेउरेसु' पाठान्तर है / अर्थ समान है। 4. 'धुबवणं सपेहिया' पाठ के अतिरिक्त चूर्णिकार ने 'धुवमन्नं समेहिता,' 'धुवमन्नं सपेहिया' तथा 'सुहम वणं समेहिता' ये पाठान्तर भी माने है। अर्थ क्रमशः. यों किया है - 'धुवो अवभिचारी वणो संजमो,"--ध्रुव यानी अव्यभिचारी-निर्दोष संयम (वर्ण) को देखकर / 'धुवो-मोक्खो सोय अण्णो संसाशमोतं सदोहिता--अर्थात्-ध्र व मोक्ष, वह संसार से अन्य-भिन्न है, उसका सदा ऊहापोह करके / ध्रुवमन्नं थिरसंजम समेहिता-समपेहिज्ज,ध्रव - स्थिर, वर्ण = संयम का अवलोकन करके अथवा सुहमरूबे उवसग्गे सूयणीया सुहमा, वण्णो नाम संजमो, सोप सुहमो थोवेणवि विराहिज्जति बाल-पद्मवत् / " उपसर्ग सूक्ष्मरूप होने से सूत्रनीति से वे सूक्ष्म कहलाते हैं। वर्ण कहते हैं---संयम को, वह भी सूक्ष्म है, थोड़े-से दोष से बाल कमल को तरह विराधित-खण्डित हो जाता है। 5. चूणि में इसके बदले पाठान्तर है-'दिवं आयं ण सद्दहे' अर्थात् दिव्य लाभ पर विश्वास न करे। चणिकार ने इसका अर्थ किया है----अहवा नुमति दव्वमुच्चति, विविहं धमिता विधमिता विमोक्खिया। अर्थात्-नम द्रव्य को भी कहते हैं / उस द्रव्य को विविध प्रकार से धुमित--विमोक्षित--पृथक करके माहन (साधु) भलीभांति समझ ले। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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