________________ तृतीय अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 128-131 113 113 दुक्खं लोगस्स जाणित्ता, वंता लोगस्स संजोग, जति वीरा महाजाणं / परेण परं जंति, णावखंति जीवितं / एग बिगिचमाणे पुढो विगिचइ, पुढो विगिचमाणे एगं विगिचइ। . सड्ढी आणाए मेधावी / लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुतोभयं / अस्थि सत्थं परेण परं, पत्थि असत्थं परेण परं / 130. जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जईसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी, जे मोहदंसी से गभवंसी, जे गन्भदंसी से जम्मदंसी, जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से णिरयदंसी, जे णिरयदंसी से तिरियदंसी जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।। से मेहावी अभिणिवटेज्जा कोधं च माणं च मायं च लोभं च पेज्जं च दोसं च मोहं च गब्भं च जम्मं च मारंच जरगं च तिरियं च दक्खं च / एयं पासगस्स दंसणं उवरयसत्थस्स पलियंतकरस्स---आयाणं निसिद्धा सगडभि / 131. किमस्थि उवधी पासगस्स, ण विज्जति ? णत्थि त्ति बेमि / // चउत्थो उद्देसओ समत्तो॥ 128. वह (सत्यार्थी साधक) क्रोध, मान, माया और लोभ का (शीघ्र ही) वमन (त्याग) कर देता है। यह दर्शन (उपदेश) हिंसा से उपरत तथा समस्त कर्मों का अन्त करने वाले सर्वज्ञ-सर्वदर्शी (तीर्थकर) का है। जो कर्मों के प्रादान (कषायों, प्रास्रबों) का निरोध करता है, वही स्व-कृत (कर्मों) का भेत्ता (नाश करने वाला) है। 129. जो एक को जानता है, वह सब को जानता है। जो सबको जानता है, वह एक को जानता है / प्रमत्त को सब ओर से भय होता है, अप्रमत्त को कहीं से भी भय नहीं होता। जो एक को झुकाता है, वह बहुतों को झुकाता है, जो बहुतों को झुकाता है, वह एक को झुकाता है। साधक लोक--(प्राणि-समूह) के दुःख को जानकर (उसके हेतु कषाय का त्याग करे) . . वीर साधक लोक के (संसार के) संयोग (ममत्व-सम्बन्ध) का परित्याग कर महायान (मोक्षपथ) को प्राप्त करते हैं। वे आगे से आगे बढ़ते जाते हैं, उन्हें फिर (असंयमी) जीवन की आकांक्षा नहीं रहती। एक (अनन्तानुबंधी कषाय) को (जीतकर) पृथक करने वाला, अन्य (कर्मो) को भी (जीतकर) पृथक् कर देता है, अन्य को (जीतकर) पृथक् करने वाला, एक को .. भी पृथक् कर देता है। (वीतराग की) आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। साधक अाज्ञा से (जिनवाणी के अनुसार) लोक (षट्जीवनिकायरूप या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org