________________ 114 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध कषायरूप लोक) को जानकर (विषयों) का त्याग कर देता है, वह अकुतोभय (पूर्ण-अभय) हो जाता है। शस्त्र (असंयम) एक से एक बढ़कर तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर होता है किन्तु प्रशस्त्र (संयम) एक से एक बढ़कर नहीं होता। 130. जो क्रोधदर्शी होता है, वह मानदर्शी होता है; जो मानदर्शी होता है, वह मायादर्शी होता है; जो मायादर्शी होता है, वह लोभदर्शी होता है; जो लोभदर्शी होता है, वह प्रेमदर्शी होता है; जो प्रेमदर्शी होता है, वह द्वेषदर्शी होता है; जो द्वषदर्शी होता है, वह मोहदर्शी होता है; जो मोहदर्शी होता है, वह गर्भदर्शी होता है; जो गर्भदर्शी होता है, वह जन्मदर्शी होता है; जो जन्मदर्शी होता है, वह मृत्युदर्शी होता है; जो मृत्युदर्शी होता है, वह नरकदर्शी होता है; जो नरकदर्शी होता है, वह तिर्यंचदर्शी होता है; जो तिर्यंचदर्शी होता है, वह दुःखदर्शी होता है; (अत:) वह मेधावी क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेम, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, तिर्यंच और दुःख को वापस लौटा दे (दूर भगा दे) / यह समस्त कर्मों का अन्त करने वाले, हिंसा-असंयम से उपरत एवं निराकरण द्रष्टा (पश्यक) का दर्शन (आगमोक्त उपदेश) है। जो पुरुष कर्म के आदान–कारण को रोकता है, वही स्व-कृत (कर्म) का भेदन कर पाता है। 131. क्या सर्व-द्रष्टा की कोई उपधि होती है, या नहीं होती ? नहीं होती। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन--सूत्र 128 से 131 तक में कषायों के परित्याग पर विशेष बल दिया गया है / साथ ही कषायों का परित्याग कौन करता है, उनके परित्याग से क्या उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं, कषागों के परित्यागी की पहिचान क्या है ? इन सब बातों पर गम्भीर चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। __ 128 वें सूत्र में क्रोधादि चारों कषायों के वमन का निर्देश इसलिए किया गया है कि साधु-जीवन में कम से कम अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ का त्याग तो अवश्य होना चाहिए, परन्तु यदि चारित्र-मोहनीय कर्म के उदयवश साधु-जीवन में भी अपकार करने वाले के प्रति तीव्र क्रोध आ जाय, जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, तप, लाभ एवं ऐश्वर्य आदि का मद उत्पन्न हो जाये, अथवा पर-वंचना या प्रच्छन्नता, गुप्तता आदि के रूप में माया का सेवन हो जाये, अथवा अधिक पदार्थों के संग्रह का लोभ जाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org