________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुसस्कन्ध पूजा-प्रतिष्ठा पाने के हेतु अनेक प्रकार की छल-फरेब एवं तिकड़मबाजी करता है। ऐसे कार्यों के लिए हिंसा, झूठ, माया, छल-कपट, बेईमानी, धोखेबाजी करने में कई लोग सिद्धहस्त होते हैं। अपने तुच्छ, क्षणिक जीवन में राग-द्वेष-वश पूजा-प्रतिष्ठा पाने के लिए बड़े-बड़े नामी साधक भी अपने त्याग, वैराग्य एवं संयम की बलि दे देते हैं; इसके लिए हिंसा, असत्य, बेईमानी, माया आदि करने में कोई दोष ही नहीं मानते / जिन्हें तिकड़मबाजी करनी आती नहीं. वे मन ही मन राग और द्वष की, मोह और घणा-ईर्ष्या आदि की लहरों पर खेलते रहते हैं, कर कुछ नहीं सकते, पर कर्मबन्धन प्रचुर मात्रा में कर लेते है। दोनों ही प्रकार के व्यक्ति पूजा-सम्मान के अर्थी हैं और प्रमादग्रस्त हैं / ' ___ 'मंशाए' का अर्थ है-मनुष्य दुःख और संकट के समय हतप्रभ हो जाता है, उसकी बुद्धि कुण्ठित होकर किंकर्त्तव्यमूढ़ हो जाती है, वह अपने साधना-पथ या सत्य को छोड़ बैठता है / झंझा का संस्कृत रूप बनता है ध्यन्धता (धी+अन्धता) बुद्धि की अन्धता / साधक के लिए यह बहुत बड़ा दोष है / झंझा दो प्रकार की होती है-राग-झंझा और द्वेष-झंझा / इष्टवस्तु की प्राप्ति होने पर राग-झंझा होती है, जबकि अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर द्वेष-झंझा होती है। दोनों ही अवस्थाओं में सूझ-बूझ मारी जाती है। लोकालोक प्रपंच का तात्पर्य है-चौदह राजू परिमित लोक में जो नारक, तिर्यच आदि एवं पर्याप्तक-अपर्याप्तक आदि सैकड़ों आलोकों-अवलोकनों के विकल्प (प्रपंच) हैं, वही हैलोकालोक प्रपंच // तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक कषाय विजय 128. से वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च / एतं पासगस्त दंसणं उबरतसत्थस्स पलियंतकरस्स, आयाणं सगडभि / / 129. जे एगं जाणति से सव्वं जाति, जे सव्वं जाणति से एगं जाणति / सव्वतो पमत्तस्स भयं, सव्वतो अप्पमत्सस्स णस्थि भयं / जे एगणामे से बहुणामे जे बहुगामे से एगं णामे।..... 1. प्राचा० टीका पत्र 153 2. प्राचा० टीका पत्र 154 3. प्राचारांग टीका पत्र 154 4. * यहाँ पाठान्तर भी है-जे एगणामे से बहुणामे, जे बहुणामे से एगणामे-इसका भाव है--जो एक स्वभाव वाला है, (उपशान्त है) वह अनेक स्वभाव वाला (अन्य गुण युक्त भी) है / जो अनेक स्वभाव वाला है वह एक स्वभाव वाला भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org