________________ 'लोगसारो' अथवा 'आवंती' पञ्चमं अज्झयणं पढमो उद्देसओ . .. लोकसार (आवंसी) : पंचम अध्ययन : प्रपम उदेशक काम : कारण और निवारण 147. आवंती' केआवंती लोयंसि विप्परामुसंति अट्ठाए अणट्ठाए वा एतेसुधेव विप्परामुसंति। गुरू से कामा / ततो से मारस्स अंतो / जतो से मारस्स अंतो ततो से दूरे। . . 147. इस लोक (जीव-लोक) में जितने भी (जो भी) कोई मनुष्य सप्रयोजन (किसी कारण से) या निष्प्रयोजन (बिना कारण) जीवों की हिंसा करते हैं, वे उन्हीं जीवों (षड्जीवनिकायों) में विविध रूप में उत्पन्न होते हैं। उनके लिए शब्दादि काम (विपुल विषयेच्छा) का त्याग करना बहुत कठिन होता है। इसलिए (षड्जीवनिकाय-वध तथा विशाल काम-भोगेच्छात्रों के कारण वह) मृत्यु की पकड़ में रहता है, इसलिए अमृत (परमपद) से दूर होता है। विवेचन-इस उद्देशक में पंचेन्द्रिय विषयक काम-भोगों और उनकी पूर्ति के लिए किए जाने वाले हिंसादि पाप-कर्मों की, तथा ऐसे मूढ़ अज्ञानी के जीवन की भी निःसारता बताकर अज्ञान एवं मोह से होने वाले पापकर्मों से दूर रहने की प्रेरणा दी गयी है। विषय-कषायों से प्रेरित होकर एकाकी विचरण करने वाले साधक की अज्ञानदशा का भी विशद निरूपण किया गया है। _ 'विप्परामुसंति' क्रियापद है, यह प्रस्तुत सूत्र-पाठ में दो बार प्रयुक्त हुना है। 'वि+ परामृश' दोनों से 'विपरामृशंति' क्रियापद बना है / पहली बार इसका अर्थ किया गया है-जो विविध प्रकार से विषयाभिलाषा या कषायोत्त जना के वश (षड्जीवनिकायों को) परामृशउपताप करते हैं, डंडे या चाबुक या अन्य प्रकार से मारपीट आदि करके जीवघात करते हैं। दूसरी बार जहाँ यह क्रियापद पाया है, वहाँ प्रसंगवश अर्थ किया गया है-उन एकेन्द्रियादि प्राणियों का अनेक प्रकार से विधात करने वाले, उन्हें पीडा देकर पुनः उन्हीं 1. चूणि में भदन्त नागार्जुनीय पाठ इस प्रकार है-''जावंति केयि लोए छक्कायं समारंभति" शीलांक टीकानुसार नागार्जुनीय पाठ इस प्रकार है-जान्ति केइ लोए छक्यायवहं समारंभांति For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org