________________ 146 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य षड् जीवनिकायों में अनेक बार उत्पन्न होते हैं। अथवा षड़जीवनिकाय को दी गयी पीड़ा से उपार्जित कर्मों को, उन्हीं कायों (योनियों) में उत्पन्न होकर उन-उन प्रकारों से उदय में आने पर भोगते हैं-अनुभव करते हैं / __ 'अट्ठाए अणटवाए' - 'अर्थ' का भाव यहाँ पर प्रयोजन या कारण है / हिंसा (जीवविघात) के तीन प्रयोजन होते हैं—काम, अर्थ और धर्म / विषय-भोगों के साधनों को प्राप्त करने के लिए जहाँ दूसरों का वध या उत्पीड़न किया जाता है, वहां कामार्थक हिंसा है, जहाँ व्यापार-धन्धे, कल-कारखाने या कृषि आदि के लिए हिंसा की जाती है, वहाँ वह अर्थार्थक है और जहाँ दूसरे धर्म-सम्प्रदाय वालों को मारा-पीटा या सताया जाता है, उन पर अन्यायअत्याचार किया जाता है या धर्म के नाम से या धर्म निमित्त पशुबलि आदि दी जाती है, वहाँ धर्मार्थक हिंसा है। ये तीनों प्रकार की हिंसाएँ अर्थवान् और शेष हिंसा अनर्थक कहलाती हैं, जैसे-मनोरंजन, शरीरबल-वृद्धि प्रादि करने हेतु निर्दोष प्राणियों का शिकार किया जाता है, मनुष्यों को भूखे शेर के आगे छोड़ा जाता है, मुर्गे, सांड़, भैसे आदि परस्पर लड़ाए जाते हैं। ये सब हिंसाएँ निरर्थक हैं ! चूर्णिकार ने कहा है- 'आत-पर उभयहेतु अहा, सेस अणद्वाए'-अपने, दूसरे के या दोनों के प्रयोजन सिद्ध करने हेतु की जाने वाली हिंसा-प्रवृत्ति अर्थवान् और निष्प्रयोजन की जाने वाली निरर्थक या अनर्थक कहलाती है।' 'गुरू से कामा' का रहस्य यह है कि अज्ञानी की कामेच्छाएँ इतनी दुस्त्याज्य होती हैं कि उन्हें अतिक्रमण करना सहज नहीं होता, अल्पसत्व व्यक्ति तो काम की पहली ही मार में फिसल जाता है, काम की विशाल सेना से मुकाबला करना उसके वश की बात नहीं। इसलिए अज्ञजन के लिए कामों को 'गुरु' कहा गया है / 'जतो से मारस्स अंतो' इस पंक्ति का भावार्थ यह भी है कि सुखार्थी जन काम-भोगों का परित्याग नहीं कर सकता, अत: काम-भोगों के परित्याग के विना वह मृत्यु की पकड़ के भीतर होता है और चूकि मृत्यु की पकड़ के अन्दर होने से वह जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से घिरा रहता है, अतः वह सुख से सैकड़ों कोस दूर हो जाता है। 148. व से अंतो व से दुरे / से पासति फुसितमिव कुसग्गे पषुण्ण णिवतितं वातेरितं / एवं बालस्स जीवितं मंदस्य अविजाणतो। कुराणि कम्माणि बाले पकुम्बमाणे तेण दुक्खेण मूढे विपरियासमुवेति, मोहेण गम्भं मरणाइ एति / एत्य मोहे पुणो पुणो। 148. वह (कामनाओं का निवारण करने वाला) पुरुष न तो मृत्यु की सीमा (पकड़) में रहता है और न मोक्ष से दूर रहता है। 1. आचा० शीला• टीका पत्रांक 179, प्राचा० नियुक्ति / 2. ग्राचा० शीला०टीका पत्रांक 180 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 180 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org