________________ द्वितीय अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 420-21 125 मूत्रादि परिष्ठापन की बहुत ही दिक्कत होती थी, रात के अंधेरे में नीचे उतरते समय पर फिसल जाने, सिर या अन्य अंगों के चोट लग जाने का खतरा तो निश्चित था। [आजकल की तरह गृहस्थ के कई मंजिले मकान में शौचादि परठने की व्यवस्था को उस युग का साधुवर्ग स्वीकार नही करता था। अतः यह निषेध उस युग के मकानों और कठोर संयमी साधुओं को लक्ष्य में रखकर किया गया है / अत्यन्त गाढ़ागाढ़ कारणवश यतनापूर्वक ऐसे मकान में ठहरने का विधान भी शास्त्रकार ने 'णण्णत्व आगाढागाडेहि कारणेह' पदों द्वारा किया है।" 'हम्मियतलंसि आदि पदों के अर्थ-वृत्तिकार 'हम्मियतलंसि' का अर्थ हयंतल --भूमिगृह करते हैं, किन्तु निशीथ चूर्णिकार इसका अर्थ करते हैं- 'सब्वोपरि डायालं हम्मतलं'–सबसे ऊपर की अट्टालिका हर्म्यतल हैं। उच्छोलेज पधोएज्न-एक बार धोना उच्छोलण है, बारबार धोना पधोवण / ऊसट्टे-मलमूत्रादि का त्याग। उपाश्रय-एषणा [पंचम विवेक]] 420. से भिक्खू वा 2 से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा सहत्यियं सखुड्ड सपसुभत्तपाणं / तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा 3 चेतेजा। 421. आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावतिकुलेग साँख संवसमाणस्स / अलसगे वा विसूइया चा छड्डी वा णं उम्माहेज्जा, अण्णतरे वा से दुक्खे रोगातके समुप्पज्जेज्जा / अस्संजते कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गातं तेल्लेण वा घएण बा णवणोएण वा वसाए वा अन्भंगेज्ज वा मक्खे 1. आचारांग मूल तथा वृत्ति पत्रांक 361 के माधार से 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 362 इस पाठ के बदले प्राचीन प्रतियों में यह पाठ अधिक प्रचलित देखा गया-से मिक्लू या 2 से ज्जं पुण उबस्सयं जाणेज्जा-ससागारियं सागणियं सउदयं सहत्थियं सखड्डपसुभत्तपाणं...।' चणि में इसी पाठ के अनुसार व्याख्या मिलती है-सागारिया=पासडस्थगित्यपुरिसेहिं, सागणियाए =अगणिसंघट्टो, सउदयाए =उदगवहो सेहगिलाणादिदोसा, सह इस्थिताहि सइत्थिया-आतपरसमुत्था, सखुडति -खुड्डाणि चेडरूवाणि सण्णाभूमि गच्छंति पढते य चंदंताणि इहरहा य वाउलेंति, अहवा खुड्डा सीह वग्घ-सुणगा, पसु-गोणमहिसादि, व्रतभंगमादिदोसा, एतेसु, भत्तपाणाईच दह्र सेहाणं भुत्ताभुत्तदोसा / ' अर्थात-सागारिया-पाखण्डी गहस्थ पुरुष, उनके साथ, सागणियाए-अग्नि का संघद्रास्पर्श, सउदयाएमजलकाय विराधना नवदीक्षित-लानादिदोष, सइत्थिया=स्त्रियों के साथ, गृहस्थ की अपनी एवं दूसरे की स्त्रियाँ / सखड्ड क्षुद्र व्यक्ति, दास रूप, जो शौच स्थान आदि की ओर जाते तथा पढ़ते समय वंदना करते हैं, अन्यथा बड़बड़ाते हैं, अथवा खुड्डा-क्षुद्र प्राणी सिंह-व्याघ्रकुत्ता आदि, पसु सांड, भैंसा आदि / इत्यादि दोषों से व्रतभंग हो जाता है, इनके आहार-पानी को देख कर नवदीक्षित साधु को भुक्त-अभुक्त दोष लगने की सम्भावना है। 4. 'अलसगे' का अर्थ दृत्तिकार के शब्दों में-'हस्तपादादिस्तम्भः श्वयधुर्वा' अर्थात् 'अलसगे' का अर्थ है हाथ, पैर आदि का शून्य-जड़ हो जाना, या सूजन हो जाना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org