________________ 124 आचासंग सत्र-द्वितीय तस्कन्ध पयलमाणे पवडमाणे वा हत्थं वा जाव सोसं वा अण्णतरं वा कार्यसि इंदियजातं लसेज्जा, पाणाणि वा अभिहणज्ज' वा जाव ववरोवेज्ज वा।। __अह भिक्खूणं पुष्वोदिट्ठा 4 जं तहप्पगारे उवस्सए अंतलिाखजाते गोठाणं वा 3 तेजा। 416. वह साधु या साध्वी यदि ऐसे उपाश्रय (मकान) को जाने, जो कि एक स्तम्भ पर है, या मचान पर है, दूसरी आदि मंजिल पर है, अथवा महल के ऊपर है, अथवा प्रासाद के तल (भूमितल में या छत पर) बना हुआ है, अथवा इसी प्रकार के किसी ऊंचे स्थान पर स्थित है, तो किसी अन्यन्त गाढ़ (असाधारण) कारण के बिना उक्त प्रकार के उपाश्रय में स्थान-स्वाध्याय आदि कार्य न करे। __ कदाचित् किसी अनिवार्य कारणवश ऐसे उपाश्रय में ठहरना पड़े, तो वहाँ प्रासुक शीतल जल से या उष्ण जल से हाथ, पैर, आँख, दाँत या मुह एक बार या बार-बार न धोए, वहाँ से मल-मूत्रादि का उत्सर्ग न करे, जैसे कि उच्चार (मल), प्रस्रवण (मूत्र), मुख का मल (कफ), नाक का मैल, वमन, पित्त, मवाद, रक्त तथा शरीर के अन्य किसी भी अवयव के मल का त्याग वहाँ न करे, क्योंकि केवलज्ञानी प्रभु ने इसे कर्मों के आने का कारण बताया है। वह (साधु) वहाँ से मलोत्सर्ग आदि करता हुआ फिसल जाए या गिर पडे / ऊपर से फिसलने या गिरने पर उसके हाथ, पैर, मस्तक या शरीर के किसी भी भाग में, या इन्द्रिय पर चोट लग सकती है, ऊपर से गिरने से स्थावर एवं अस प्राणी भी घायल हो सकते हैं, यावत् प्राणरहित हो सकते हैं। __ अत: भिक्षुओं के लिए तीर्थंकर आदि द्वारा पहले से ही बताई हुई यह प्रतिज्ञा है, हेतु है, कारण है और उपदेश है कि इस प्रकार के उच्च स्थान में स्थित उपाश्रय में साधु कायोत्सर्ग आदि कार्य न करें। विवेचन-- उच्चस्थ उपाश्रय निषेध : चतुर्थ विवेक—इस एक ही सूत्र में एक ही खंभे, मंच आदि या अटारी के रूप में महल पर या छत पर बने हुए मकान में ठहरने का साधु के लिए निषेध किया गया है, ठहरने से होने वाली कायिक-अंगोपांगीय हानि तथा प्राणि-विराधना का भी उल्लेख किया गया है। प्राचीनकाल में साधु प्रायः ऐसे ही मकान में ठहरते थे, जो कच्चा छोटा-सा और जीर्णशीणं होता था, जिसमें किसी गृहस्थ परिवार का निवास नहीं होता था। कच्चे और छोटे मकान का प्रतिलेखन-प्रमार्जन भी ठीक तरह से हो जाता था, और मलमूत्रादि विसर्जन भी पंचम समिति के अनुकूल हो जाता था / ऊपर की मंजिल में, या बहुत ऊँचे मकान से मल१. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अमिहम्म वा' से लेकर ववरोदे वा' तक का सारा पाठ सूत्र 365 के ___अनुसार है। . 2. 'पुग्योवविवा' के बाद '4' का अंक सूत्र 357 के अनुसार 'उवएसे' तक के पाठ का सूचक है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org