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________________ 128 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध 139. पहले उनमें से प्रत्येक दार्शनिक को, जो-जो उसका सिद्धान्त है, उसमें व्यवस्थापित कर हम पूछेगे-'हे दार्शनिको ! प्रखरवादियों ! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय ? यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय है, तब तो वह उत्तर प्रत्यक्ष-विरुद्ध होगा, यदि आप कहें कि हमें दुःख प्रिय नहीं है, तो आपके द्वारा इस सम्यक् सिद्धान्त के स्वीकार किए जाने पर हम आपसे यह कहना चाहेंगे कि, "जैसे प्रापको दुःख प्रिय नहीं है, वैसे ही सभी प्राणी, भूत, जीव और सत्वों को दुःख असाताकारक है, अप्रिय है, अशान्तिजनक है और महा भयंकर है।" --- ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन- इस उद्देशक में प्रास्रव और परिस्रव की परीक्षा के लिए तथा प्रास्रब में पड़े हए लोग कैसे परिस्रव (निर्जरा-धर्म) में प्रवत्ति हो जाते हैं तथा परिस्रव (धर्म) का अवसर आने पर भी लोग कैसे प्रास्रव में ही फंसे रहते हैं ? आस्रवमग्न जनों को नरकादि में विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है तथा क्रूर अध्यवसाय से ही प्रगाढ़ वेदना होती है, अन्यथा नहीं, इनके लिए विवेक सूत्र प्रस्तुत किये गये हैं। अन्त में हिंसावादियों के मिथ्यावाद-प्ररूपणा का सम्यग्वाद के मण्डन द्वारा निराकरण किया गया है। इस प्रकार अर्हद्दर्शन की सम्यक्ता का स्थापन किया है।' आस्रव का सामान्य अर्थ है-'कायवाड मनः कर्म योगः, स आस्रवः” काया, वचन और मन की शुभाशुभ क्रिया-प्रवृत्ति योग कहलाती है, वही प्रास्रव है। हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील आदि में प्रकत्ति अशुभ कायास्रव है और इनसे विपरीत शुभ आशय से की जाने वाली प्रवृत्ति शुभकायास्रव है। कठोर शब्द, गाली, चुगली निन्दा आदि के रूप में पर-बाधक वचनों की प्रवृत्ति वाचिक अशुभ प्रास्रव है, इनसे विपरीत प्रवृत्ति वाचिक शुभात्रव है / / मिथ्याश्र ति, घातचिन्तन, अहितचिन्तन, ईर्ष्या, मात्सर्य, षड्यन्त्र आदि रूप में मन की प्रवृत्ति मानस अशुभास्रव है और इनसे विपरीत मानस शुभास्रव है / (1) हिंसा, (2) असत्य, (3) चोरी, (4) मैथुन और (5) परिग्रह-ये पाँच प्रास्रवद्वार माने जाते हैं। प्रास्रव के भेद कुछ प्राचार्यों ने मुख्यतया पाँच माने हैं--(१) मिश्यात्व, (2) अविरति, (3) अमाद, (4) कषाय और (5) योग ! कुछ प्राचार्यों ने (1) इन्द्रिय, (2) कषाय, (3) अव्रत, (4) क्रिया और (5) योग-ये पाँच मुख्य भेद मानकर उत्तर भेद 42 माने हैं-५ इन्द्रिय, 4 कषाय, 5 अवत, 25 क्रिया और 3 योग / किन्तु इन सबका फलितार्थ एक 1 आचा० शीला टीका पत्रांक 164 / 2 तत्वार्थमूत्र अ० 6, सू० 1, 2 / 3 तत्त्वार्थ-राजपातिक अ० 7.14 / 39 / 25 / 4 (क) प्राध्याकरण, प्रयम खण्ड प्रानपद्वार, (ख) आचा० शीला टीका पत्रांक 164 / 5 (क) समयसार मूल 164, (ख) गोम्मटसार कर्म काण्ड मू० 86, (ग) बृ० द्रव्यसंग्रह मू० 30 / 6 (क) तत्त्वार्थसार 417, (ख) वितत्त्वगाथा / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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