________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-139 129 - प्रास्रव का सर्व सामान्य लक्षण है-आठ प्रकार के शुभाशुभ कर्म जिन मिथ्यात्वादि स्रोतों से आते हैं-प्रात्म-प्रदेशों के साथ एकमेक हो जाते हैं, उन स्रोतों को प्रास्रव कहते हैं।' ___ आस्रव और बन्ध के कारणों में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु प्रक्रिया में थोड़ा-सा अन्तर है। कर्मस्कन्धों का प्रागमन आस्रव कहलाता है और कर्मस्कन्धों के आगमन के बाद उन कर्म-स्कन्धों का जीव-(प्रात्म-) प्रदेशों में स्थित हो जाना बन्ध है। प्रास्रव और बन्ध में यही अन्तर है। इस दृष्टि से प्रास्रब को बन्ध का कारण कहा जा सकता है। इसीलिए प्रस्तुत सूत्र में प्रास्त्रवों को कर्मबन्ध के स्थान-कारण बताया गया है / परिस्रव जिन अनुष्ठान विशेषों से कर्म चारों ओर से गल या बह जाता है, उसे परिस्रव कहते हैं / नव तत्त्व की शैली में इसे 'निर्जरा' कह सकते हैं, क्योंकि निर्जरा का यही लक्षण है। इसीलिए यहाँ परिस्रव को 'निर्जरा स्थान, बताया गया है / प्रास्रवों से निवृत्त होने का उपाय 'मूलाचार' में यों बताया गया है-'मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगों से जो कर्म पाते हैं वे सम्यग्दर्शन, विरति, क्षमादिभाव और योगनिरोध से नहीं आने पाते, रुक जाते हैं। समयसार में निश्चय दृष्टि से प्रास्रव-निरोध का उपाय बताते हुए कहा है / 5 -- "ज्ञानी विचारता है कि मैं एक हूँ, निश्चयतः सबसे पृथक् हूँ, शुद्ध हूँ, ममत्वरहित हूँ, ज्ञान और दर्शन से परिपूर्ण हूँ। इस प्रकार अपने प्रात्मभाव (स्वभाव) में स्थित उसी चैतन्य अनुभव में एकाग्रचित्त-तल्लीन हया मैं इस सब क्रोधादि पासवों का क्षय कर देता हूँ। ये पानव जीव के साथ निबद्ध हैं, अनित्य हैं, अशरण हैं, दुःखरूप हैं, इनका फल दुःख ही है, यह जानकर ज्ञानी पुरुष उनसे निवृत्त होता है। जैसे-जैसे जीव पानवों से निवृत्त होता जाता है, वैसे-वैसे बह विज्ञानधन स्वभाव होता है, यानी यात्मा ज्ञान में स्थिर होता जाता है / " इसी दृष्टि का संक्षेप कथन यहाँ पर हुया है कि जो प्रास्रव के–कर्मबन्धन के स्थान हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष के लिए परिस्रव-कर्म निर्जरा के स्थान–(कारण) हो जाते हैं। इसका प्राशय यह है कि विषय-सुखमग्न मनुष्यों के लिए जो स्त्री, वस्त्र, अलंकार, शैया आदि वैषयिक सूख के कारणभूत पदार्थ कर्मबन्ध के हेतु होने से प्रान्त्रव हैं, वे ही पदार्थ विषय-सूखों से पराड.मुख साधकों के लिए ग्राध्यात्मिक चिन्तन का प्राधार बन कर परिस्रव-कर्मनिर्जरा के हेतु हैं -- स्थान हैं और अर्हदेव, निर्ग्रन्थ मुनि, चारित्र, तपश्चरण, दशविध धर्म या दशविध समाचारी का पालन अादि जो कर्म-निर्जरा के स्थान हैं. वे ही असम्बुद्ध - अज्ञानी व्यक्तियों के लिए कर्मोदयत्रश, अहंकार आदि अशुभ अध्यवसाय के कारण, ऋद्धि-रस-साता के गर्ववश या अाशातना के कारण ग्रास्रव रूप-कर्मबन्ध स्थान हो जाते हैं। इसी बात को अनेकान्तली से शास्त्रकार बताते हैं जो व्रतविशेषरूप अनास्रव हैं, अशुभ परिणामों के कारण वे अमम्बुद्ध -- अन्नानी व्यक्ति के लिए अपरिस्रव-आस्रवरूप हो 1 आचा. शीला टीका पत्रांक 168 / 2 द्रव्यसंग्रह टीका 33124 / 3 पाना. जीला० टीका पत्रांक 164 / 4 मुत्राचार गा० 241 / 5 ममयसार गा० 76, 74 / 6 आचा० शीला० टीका पत्रांक 164 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org