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________________ आचारांम सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध जाते है, कर्मबन्ध के हेतु बन जाते हैं. उनकी दृष्टि और कर्मों की विषमता के कारण। इसी प्रकार जो अपरिस्रव हैं--प्रास्रवरूप-कर्मबन्ध के कारणरूप-किंवा कर्म से प्रस्त वेश्या, हत्यारे, पापी या नारकीय जीव आदि हैं, वे ही सम्बुद्ध-ज्ञानवान् के लिए अनास्वरूप हो जाते हैं, यानी वे उसके लिए प्रास्रवरूप न बनकर कर्मनिर्जरा के कारण बन जाते हैं / इसीलिए कहा है यथाप्रकारा यावन्तः संसारावेशहेतवः / तावन्तस्तद्विपर्यासात् निर्वाणसुखहेतवः / / -जिस प्रकार के और जितने संसार-परिभ्रमण के हेतु हैं, उसी प्रकार के और उतने ही निर्वाण-सुख के हेतु हैं। वास्तव में इस सूत्र के आधार पर आस्रव, परिस्रव, अनास्रव और अपरिस्रव को लेकर चतुर्भगी होती है, वह क्रमश: इस प्रकार हैं---- (1) जो आस्रव हैं, वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं, वे प्रास्रव हैं / (2) जो आस्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं, जो अपरिस्रव हैं, वे प्रास्रव हैं। (3) जो अनास्रव हैं, वे परिस्रव हैं, जो परिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं। (4) जो अनास्रव हैं, वे अपरिस्रव हैं, जो अपरिस्रव हैं, वे अनास्रव हैं। प्रस्तुत सूत्र में पहले और चौथे भंग का निर्देश है। दूसरा भंग शून्य है / अर्थात् प्रास्रव हो और निर्जरा न हो—ऐसा कभी नहीं होता। तृतीय भंग शैलेशी अवस्था-प्राप्त (निष्प्रकम्पअयोगी) मुनि की अपेक्षा से है, उनको आस्रव नहीं होता; केवल परिस्रव (संचित कर्मों का क्षय) होता है। चतुर्थ भंग मुक्त आत्माओं की अपेक्षा से प्रतिपादित है / उनके प्रास्रव और परिस्रव दोनों ही नहीं होते। वे कर्म के बन्ध्र और कर्मक्षय दोनों से प्रतीत होते हैं। इस सूत्र का निष्कर्ष यह है कि किसी भी वस्तु, घटना, प्रथसि, क्रिया, भावधारा या व्यक्ति के सम्बन्ध में एकांगी दृष्टि से सही निर्णय नहीं दिया जा सकता / एक ही क्रिया को करने वाले दो व्यक्तियों के परिणामों को धारा अलग-अलग होने से एक उससे कर्म-बन्धन कर लेगा, दूसरा उसी क्रिया से कर्म-निर्जरा (क्षय) कर लेगा / प्राचार्य अमितगति ने योगसार (6 / 18) में कहा है अज्ञानी बध्यते यत्र, सेव्यमानेऽक्षगोचरे / ततंव मुच्यते ज्ञानी पश्यतामाश्चर्य मीदृशम् // इन्द्रिय-विषय का सेवन करने पर अज्ञानी जहाँ कर्मबन्धन कर लेता है, ज्ञानी उसी विषय के सेवन करने पर कर्मबन्धन से मुक्त होता है-निर्जरा कर लेता है / इस आश्चर्य को देखिए। 'अट्टा वि संता अदुवा पमत्ता'-इस सूत्र का प्राशय बहुत गहन है / कई लोग अशुभ आस्रव-पापकर्म में पड़े हुए या विषय-सुखों में लिप्त प्रमत्त लोगों को देखकर यह कह देते है कि "ये क्या धर्माचरण करेंगे, ये क्या पाप कर्मों का क्षय करने के लिए उद्यत होंगे?" 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 165 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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