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________________ चतुर्थ अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 134-139 127 तब वे आयुष्य पूर्ण कर) लोक में होने वाले (विभिन्न) दुःखों का संवेदन--भोग करते हैं। __जो व्यक्ति अत्यन्त गाढ़ अध्यवसायवश क र कर्मों में प्रवृत्त होता है, वह (उन ऋर कर्मों के फलस्वरूप) अत्यन्त प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में पैदा होता है। जो गाढ़ अध्यवसाय वाला न होकर, क्रू र कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता, वह प्रगाढ़ वेदना वाले स्थान में उत्पन्न नहीं होता। ___ यह बात चौदह पूर्वो के धारक श्रुतकेवली प्रादि कहते हैं या केवलज्ञानी भी कहते हैं / जो यह बात केवलज्ञानी कहते हैं वही श्रुतकेवली भी कहते हैं। 136, इस मत-मतान्तरों वाले लोक में जितने भी, जो भी श्रमण या ब्राह्मण हैं, वे परस्पर विरोधी भिन्न-भिन्न मतवाद (विवाद) का प्रतिपादन करते हैं। जैसे कि कुछ मतवादी कहते हैं-"हमने यह देख लिया है, सुन लिया है, मनन कर लिया है, और विशेष रूप से जान भी लिया है, (इतना ही नहीं), ऊँची, नीची और तिरछी सभी दिशाओं में सब तरह से भली-भाँति इसका निरीक्षण भी कर लिया है कि सभी प्राणी, सभी जीव, सभी भूत और सभी सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है, उन्हें परिताप पहुँचाया जा सकता है, उन्हें गुलाम बनाकर रखा जा सकता है. उन्हें प्राणहीन बनाया जा सकता है / इसके सम्बन्ध में यही समझ लो कि (इस प्रकार से) हिमा में कोई दोष नहीं है।" यह अनार्य (पाप-परायण) लोगों का कथन है।। 137. इस जगा में जो भी प्रार्य—पाप कर्मों से दूर रहने वाले हैं, उन्होंने ऐसा कहा है- "प्रो हिंसावादियो! आपने दोषपूर्ण देखा है, दोषयुक्त सुना है, दोषयुक्त मनन किया है, पापने दोषयुक्त ही समझा है, ऊँची-नीची-तिरछी सभी दिशाओं में सर्वथा दोषपूर्ण होकर निरीक्षण किया है, जो आप ऐसा कहते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा प्ररूपण (मत-प्रस्थापन) करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीब और सत्त्व हनन करने योग्य हैं, उन पर शासन किया जा सकता है. उन्हें बलात पकड़ कर दास बनाया जा सकता है, उन्हें परिताप दिया जा सकता है, उनको प्राणहीन बनाया जा सकता है; इस विषय में यह निश्चित समझ लो कि हिंसा में कोई दोष नहीं।" यह सरासर अनार्य-वचन है। 138. हम इस प्रकार कहते हैं, ऐसा ही भाषण करते हैं, ऐसा ही प्रज्ञापन करते हैं, ऐसा ही प्ररूपण करते हैं कि सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनको जबरन शासित नहीं करना चाहिए, उन्हें पकड़ कर दास नहीं बनाना चाहिए, न ही परिताप देना चाहिए और न उन्हें डराना-धमकाना, प्राणरहित करना चाहिए। इस सम्बन्ध में निश्चित समझ लो कि अहिंसा का पालन सर्वथा दोष रहित हैं। यह (अहिंसा का प्रतिपादन) आर्यवचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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