________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 785 411 अन्य शास्त्रों में भी पांच भावनाओं का उल्लेख-समवायांग सूत्र में इस महाव्रत की पंच भावनाओं का क्रम इस प्रकार है-(१) अवग्रह की बारबार याचना करना, (2) अवग्रह की सीमा जानना, (3) स्वयं अवग्रह की बार-बार याचना करना, (4) सार्मिकों के अवग्रह का अनुज्ञाग्रहण पूर्वक परिभोग करना, और (5) सर्वसाधारण आहार-पानी का गुरुजनों आदि की अनुज्ञा ग्रहण करके परिभोग करना / / आचारांग चूणि सम्मत पाठ के अनुसार पंच भावनाएं इस प्रकार हैं-(१) यथायोग्य विचारपूर्वक अवग्रह की याचना करे, (2) अवग्रह-अनुज्ञा-ग्रहणशील हो, (3) अवग्रह की क्षेत्र काल सम्बन्धी जो भी मर्यादा ग्रहण की हो, उसका उल्लंघन न करे, (4) गुरुजनों की अनुज्ञा ग्रहण करके आहारपानी आदि का उपभोग करे, (5) सार्मिकों से भी विचारपूर्वक अवग्रह की याचना करे। __ आवश्यक चूणि सम्मत पंच भावना का क्रम यों है—(१) स्वयं बारबार अवग्रह याचना करे, (2) विचार-पूर्वक मर्यादित अवग्रह-याचना करे, (3) अवग्रह की गृहीत सीमा का उल्लंघन न करे (4) गुरु आदि से अनुज्ञा ग्रहण करके आहार-पानी का सेवन करे, (5) सार्मिकों से अवग्रह की याचना करे / / तत्त्वार्थसूत्र में भी इस महाव्रत की पंचभावनाएं इस प्रकार बताई गई हैं--(१) शून्यागारावास, (2) विमोचितावास, (3) परोपरोधकरण, (4) भैक्षशुद्धि और (5) सधर्माविसंवाद / पर्वत की गुफा और वृक्ष का कोटर आदि शून्यागार हैं, इनमें रहना शून्यागारावास है / दूसरों द्वारा छोड़े हुए मकान आदि में रहना विमोचितावास है। दूसरों को ठहरने से नही रोकना परोपरोधाकरण है। आचारशास्त्र में बतलाई हुई विधि के अनुसार भिक्षा लेना भैक्षशुद्धि है। 'यह मेरा है, यह तेरा हैं, इस प्रकार सार्मिकों से विसंवाद न करना सधर्माविसंवाद है / ये अदत्तादानविरमणब्रत की पांच भावनाएं हैं। अदत्तादान-विरमगवत को पंच भावनाओं को उपयोगिता-चूणिकार के अनुसार-अदत्तादान विरमणमहाव्रत की सुरक्षा के लिए एवं अदत्तादानग्रहण न करने के उद्देश्य से ये भावनाएं 1. समवायांग (सम. 25) का पाठ-१. 'उग्गहअणुण्णण बया, 2. उग्गहसीमजाणणया, 3. सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया 4. साहम्मिय उग्गहं अणण्णविय परिभंजणया, 5. साहारणभत्तपाणं अणुण्ण विय परिभंजणया। "आगंतारेसु 8 अणुवीई उम्गहं जाएज्जा से निग्गंथे, ..."उग्गहणसीलए से निग्गंथे... णो निग्गथे एत्ताव ताव उग्गहे, एत्ताव ताव आत्तमणसंकप्पे "अणुण्ण विय पाणभोयणभोई से निग्गंधे.. से आगंतारेस व 4 ओग्गहजायी से निग्गंथे साधम्मिएस.) --आचा० चूणि मू० पा० टि० पृ० 280 3. सयमेव अ उग्गहजायण घड़े, मतियं णिसम्म सतिभिक्खु ओग्गह। अणुणविय भुजिज्ज पाणभोयणं, जाइत्ता साहिम्मियाण उन्महं / / 3 / / -आवश्यक चणि प्रतिक्रमणाध्ययन 143-147 5. "शुन्यागारविमोचितावास-परोपरोधाकरण-भक्षशुद्धि-सधर्माविसंवादा: पंच।" तत्त्वार्थ सवार्थसिद्धि 76 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org