________________ 18 आचारांग सूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध परकाय शस्त्र-मिट्टी, तेल, क्षार, शर्करा, अग्नि आदि, तदुभय शस्त्र-जल से भीगी मिट्टी आदि, भाव शस्त्र-असंयम। जलकाय के जीवों की हिंसा को 'अदत्तादान' कहने के पीछे एक विशेष कारण है। तत्कालीन परिबाजक आदि कुछ संन्यासी जल को संजीव तो नहीं मानते थे, पर अदत्त जल का प्रयोग नहीं करते थे। जलाशय आदि के स्वामी की अनुमति लेकर जल का उपयोग करने में वे दोष नहीं मानते थे। उनकी इस धारणा को मूलतः भ्रान्त बताते हुए यहाँ कहा गया है जलाशय का स्वामी क्या जलकाय के जीवों का स्वामी हो सकता है ? क्या जल के जीवों ने अपने प्राण-हरण करने या प्राण किसी को सौंपने का अधिकार उसे दिया है ? नहीं ! अत: जल के जीवों का प्राण-हरण करना हिंसा तो है ही, साथ में उनके प्राणों की चोरी भी है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी भी जीव की हिंसा, हिंसा के साथ-साथ अदत्तादान भी है। अहिंसा के सम्बन्ध में यह बहुत ही सूक्ष्म व तर्कपूर्ण गम्भीर चिन्तन है। 27. कप्पडणे, कप्पड़ णे पातु, अदुवा विभूसाए / पुढो सत्थेहि विउ ति / 28. एत्थ वि तेसि णो णिकरणाए। 29. एस्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवति / एस्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिणाया भवंति / 30. तं परिणाय मेहावी गेष सयं उदयसत्थं समारभेज्जा, णेवणेहि उदयसत्थं . समारभावेज्जा, उदयसत्थं समारभंते वि अण्णे ण समणुजाणेज्जा / / 31. जस्सेते उदयसत्थसमारंभा परिणाया भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मेत्ति बेमि / ॥तइओ उद्देस समत्तो॥ 27. 'हमें कल्पता है। अपने सिद्धान्त के अनुसार हम पीने के लिए जल ले सकते हैं।' (यह श्राजीवकों एवं शैवों का कथन है)। _ 'हम पीने तथा नहाने (विभूषा) के लिए भी जल का प्रयोग कर सकते हैं / ' (यह बौद्ध श्रमणों का मत है) इस तरह अपने शास्त्र का प्रमाण देकर या नानाप्रकार के शस्त्रों द्वारा जलकाय के जीवों की हिंसा करते हैं। 28. अपने शास्त्र का प्रमाण देकर जलकाय की हिंसा करने वाले साधु, हिंसा के पाप से विरत नहीं हो सकते / अर्थात् उनका हिंसा न करने का संकल्प परिपूर्ण नहीं हो सकता। 29. जो यहाँ, शस्त्र-प्रयोग कर जलकाय के जीवों का समारम्भ करता है, वह इन प्रारंभों (जीवों की वेदना व हिंसा के कुपरिणाम) से अनभिज्ञ है। अर्थात् हिंसा करने वाला कितने ही शास्त्रों का प्रमाण दे, वास्तव में वह अज्ञानी ही है। 1 प्राचा० शीला टीका पत्रांक 42 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org