________________ 357 चौदहवां अध्ययन : प्राथमिक (जिनकल्पी, जिन) एवं प्रतिमाप्रतिपन्न साधओं के उद्देश्य से किया गया है। वास्तव में, गच्छनिर्गत साधुओं का जीवन स्वभावतः निष्प्रतिकर्म एवं अन्योन्यक्रिया-निषेध में से अभ्यस्त होता है। * गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधुओं के लिए यतनापूर्वक अन्योन्यक्रिया कारणवश उपादेय हो सकती है। * इस अध्ययन में, तेरहवें अध्ययन में वर्णित पाद-काय-व्रण आदि के परिकर्म से सम्बन्धित परक्रिया निषेध की तरह उन सब परिकर्मों से सम्बन्धित क्रियाओं का निषेध किया गया है। 7. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 417. आचारांग नियुक्ति गा० 326 / (ख) चर्णिकार के अनुसार--"अण्णमण्णकिरिया दो सहिता अण्णमणस्स पगरंति,ण कप्पति एवं चेब एवं पुण पडिमा पडिवण्णाणं जिणाणं च ण कप्पति / थेराणं कि पि कप्पेज्ज कारणजाए / बुद्ध या विभासियध्वं ।"--आचारांग चुणि मू. पा. टि. पृ. 258 8. आचारांग मूलपाठ वत्ति पत्रांक 417 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org