________________ आचारांग सूत्र--द्वितीय शु तस्कन्ध किन्तु यह सब यथातथ्य न बतलाकर बनावटी बातें बनाता है तो ये सब संसार-परिवृद्धिकारक दोषों के आयतन (स्थान) हैं।' सप्त पिवणा-पानंषणा 406. अह भिक्खू जाणेज्जा सत्त पिंडेसणाओ सत्त पाणेसणाओ। [1] तत्थ खलु इमा पढमा पिंडेसणा-असंसट्ठे हत्थे असंसठे मत्ते। तहप्पगारेण असंसद्रुण हत्येण वा मत्तएण वा असणं वा 4 सयं वा णं जाएज्जा परो वा से देज्जा, फासुयं पडिगाहेज्जा-पढमा पिंडेसणा। [2] अहावरा दोच्चा पिंडेसणा–संस? हत्थे संस? मत्ते, तहेव दोच्चा पिंडेसणा। [3] अहावरा तच्चा पिंडेसणा-इह खलु पाईणं वा 4 संतेतिया सड्ढा भवंति गाहावती वा जाव कम्मकरी वा / तेसिं च णं अण्णतरेसु विरूवरूवेसु भायणजातेसु उणिक्खित्तपुन्वे सिया, तं जहा थालंसि वा पिढरगंसि वा सरगंसि वा परगंसि वा वरगंसि वा / अह पुणेवं जाणेज्जा असंस? हत्थे संस? मत्ते, संस? वा हत्थे असंस? मत्ते / से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहए वा, से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ति वा भगिणो ति वा एतेण तुमं असंसट्टण हत्येण संसट्ठण मत्तेण संसट्टेण वा हत्थेण असंसद्रुण मत्तेण अस्सि पडिग्गहगंसि वा पाणिसि वा णिहट्ट ओवित्त दलयाहि / तहप्पगारं भोयणजातं सयं वा जाएज्जा परो वा से देज्जा / फासुयं एसणिज्जं जाव लाभे संते पडिगाहेज्जा / तच्चा पिंडेसणा। [4] अहावरा चउत्था पिडेसणा-से भिक्खू वा 2 से जं पुण" जाणेज्जा पिहयं का जाव चाउलपलंबं वा, अस्सि खलु पडिग्गाहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पज्जवजाते। 1. आचारांग चूणि--"कादाइ वाघातेण ण णेज्जा वितं भत्तपाणं गिलाण, अत्यंतो सूरो, मोणा अस्सा वा मारणमा, खंधावारी हत्थी मत्तो, सूल वा होज्जा / इच्चयाइ आयतणाई-आयतणा दोषाइ अप्प सत्थाई मंसारस्स...।" आचा० मूलपाठ टिप्पण पृष्ठ 142 2. 'पाईगं 'वा' के बाद 4 का अंक सूत्र 380 के अनुसार शेष तीनों दिशाओं का सूचक है। 3. पिढरगंसि के स्थान पर पाठान्तर है--पिढरंसि ।-चूर्णिकार ने इन पदों का अर्थ इस प्रकार किया है-पिहडए वा अन्नमि छडं / सरगं समयं पच्छिगादिपिडिया छब्वगपलगं वा। वरगंसि वा, छ (व ?) रा भूमी, जहा वरं हंतोति वराहं उत्किरतीत्यर्थः, तं अलिदिगा वा फुडगं वा। परम्भ मणिमयमदि / ' अर्थात्-पिठर (तपेली) पर जो कि अन्न में रखी हुयी है, सरक-बाँस की पिटारी, छबड़ी या टोकरी, वरगंसिवरा-भूमि, जो भूमि को उखाड़ता है, वह है वराह / वराह (सूअर) के लिए धान्य रखने का पात्र विशेष या फंडा / परम्भ-मणिमय बहुमूल्य पात्र, भाजर / 4. यहाँ जाव शब्द से सू. 326 के अनुसार पिहयं से लेकर पाउलपलं तक का पाठ समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org