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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध " 'अयं चाततरे' का अर्थ चणिकार ने किया है-यह प्रायतर है-यानी ग्रहण करने में दृढ़तर है। इसीलिए कहा है 'अयं से उत्तमे धम्म / ' अर्थात्-यह सर्वप्रधान मरण विशेष है।' न में देहे परोसहा-इस पंक्ति से प्रात्मा और शरीर की भिन्नता का बोध सूचित किया गया है। साथ ही यह भी बताया गया है कि परीषह और उपसर्ग तभी तक हैं, जब तक जीवन है / अनशन साधक जब स्वयं ही शरीर-भेद के लिए उद्यत है तब वह इन परीषहउपसर्गों से क्यों घबराएगा? वह तो इन्हें शरीर-भेद में सहायक या मित्र मानेगा। 'घुववग्णं सपेहिया'-शास्त्रकार ने इस पंक्ति से यह ध्वनित कर दिया है कि प्रायोपगमन अनशन साधक की दृष्टि जब एकमात्र ध्र ववर्ण-मोक्ष या शुद्ध संयम की ओर रहेगी तो वह मोक्ष में विघ्नकारक या संयम को अशुद्ध-दोषयुक्त बनाने वाले विनश्वर काम-भोगों में, चक्रवर्तीइन्द्र आदि पदों या दिव्य सुखों के निदानों में क्यों लुब्ध होगा? वह इन समस्त सांसारिक सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति अनासक्त एवं सर्वथा मोहमुक्त रहेगा। इसी में उसके प्रायोपगमन अनशन की विशेषता है / इसीलिए कहा है--- . दिव्वमायं सद्दहे'-दिव्य माया पर विश्वास न करे, सिर्फ मोक्ष में उसका विश्वास होना चाहिए। जब उसकी दृष्टि एकमात्र मोक्ष की ओर है तो उसे मोक्ष के विरोधी संसार की ओर से अपनी दृष्टि सर्वथा हटा लेनी चाहिए।' // अष्टम उद्देशक समाप्त // . // अष्टम विमोक्ष अध्ययन सम्पूर्ण // .. पुढवी आऊ तेक वणफदित तेसु जद्वि वि साहरिदो। बोसठ्ठचत्तदेहो अधायुगं पालए तस्थ // 2066 // मज्जणयगंध पुष्फोवयार पडिचारणे किरंत। बोसट्ठ पत्तदेही अधायुगं पालए तधवि // 2067 // वोसदृचत्तवेहो दुणिक्खिवेज्जो जहि जधा अंग / जावज्जीवं तु सयं तहि, तमगं ण चालेन्जः॥२०६८॥ .. .. . . - भगवती आमच 1. आचा० शीला टीका पत्रांक 295 / ': 2. आचामीलार टीका पत्रांक 2:5 / 3. आना० शीला टीका पत्रांक 215 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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