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________________ पन्द्रहवाँ अध्ययन : सूत्र 786-61 416 ___ (4) इसके अनन्तर चौथी भावना यह हैं-जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्ष को चाहिए कि वह मनोज्ञ-अमनोज्ञ रसों में न आसक्त हो, न रागभावाविष्ट हो, न गृद्ध. मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त हो, और न उन पर राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का घात करें। केवली भगवान् का कथन है, कि जो निम्रन्थ मनोज्ञअमनोज्ञ रसों में आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित, मूच्छित या अत्यासक्त हो जाता है, या रागद्वेष करके अपना आपा (आत्मभान) खो बैठता है, वह शान्ति नष्ट कर देता है, शान्ति भंग करता है तथा शान्तिमय केवलि-भाषित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि रस जिह्वाप्रदेश में आए और वह उसको चखे नहीं; किन्तु उन रसों के प्रति जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है, भिक्ष उसका परित्याग करे / / 133 / अतः जिह्वा से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ सभी प्रकार के रसों का आस्वादन करता है, किन्तु भिक्षु को उनमें आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए. न उनके प्रति राग द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात करना चाहिए / यह चौथी भावना है। (5) इसके पश्चात् पंचम भावना यों है-स्पर्शनेन्द्रिय से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों का संवेदन (अनुभव) करता है, किन्तु भिक्षु उन मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्शों में न आसक्त हो, न आरक्त, हो, न गृद्ध हो, न मोहित-मूच्छित और अत्यासक्त हो, और नही इष्टानिष्टस्पर्शो में राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का नाश करे / केवली भगवान् कहते हैं-जो निर्ग्रन्थ मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर आसक्त, आरक्त, गृद्ध, मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त हो जाता है, या रागद्वेषग्रस्त होकर आत्मभाव का विघात कर बैठता है, वह शान्ति को नष्ट कर डालता है, शान्तिभंग करता है, तथा स्वयं केवलीप्ररूपित शान्तिमय धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। __ स्पर्शेन्द्रिय-विषय प्रदेश में आए हुए स्पर्श का संवेदन न करना किसी तरह संभव नहीं है, अतः भिक्षु उन मनोज्ञ-अमनोज्ञ स्पर्शों को पाकर उनमें उत्पन्न होने वाले राग या द्वेष का त्याग करे, यही अभीष्ट है // 134 // अतः स्पर्शेन्द्रिय से जीव प्रिय-अप्रिय अनेक प्रकार के स्पर्शों का संवेदन करता है; किन्तु भिक्षु को उन पर आसक्त, आरक्त, गद्ध. मोहित-मूच्छित या अत्यासक्त नहीं होना चाहिए, और न ही इष्टानिष्ट स्पर्श के प्रति राग-द्वेष करके अपने आत्मभाव का विघात करना चाहिए। यह है पांचवीं भावना / 761. इस प्रकार पंच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा स्वीकृत परिग्रह-विरमण रूप पंचम महाबत का काया से सम्यक् स्पर्श करने, उसका पालन करने, स्वीकृत महाव्रत को पार लगाने, उसका कीर्तन करने तथा अन्त तक उसमें अवस्थित रहने पर भगवदाज्ञा के अनुरूप आराधक हो जाता है। भगवन् ! यह है—परिग्रह-विरमणरूप पंचम महाव्रत ! विवेचन—पंचम महाव्रत की प्रतिज्ञा और उसको पांच भावनाएँ-प्रस्तुत सूत्रत्रयी में भी पूर्ववत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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