________________ 288 आगरगि सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध दृढ़ रहने वाला) वीतराग. संसार-पारगार्मी, अनशन को अन्त तक निभायेगा या नहीं? इस प्रकार को शका से मुक्त, सर्वथा कृतार्थ, जीवादि पदार्थों का सांगोपांगा माता, अथवा समस्त प्रयोजनों (बातों) से अतीत (परे), परिस्थितियों से अप्रभावित (अनशन-स्थित मुनि प्रायोपगमन- अनशन को स्वीकार करता है)। वह भिक्षु प्रतिक्षण विनाशशील शरीर को छोड़ कर, नाना प्रकार के उपसर्गों और परीषहों पर विजय प्राप्त करके शरीर और प्रात्मा पृथक-पृथक हैं'। इस (सर्वज्ञप्ररूपित भेद-विज्ञान) में पूर्ण विश्वास के साथ इस घोर अनशन का शास्त्रीय विधि के अनुसार) अनुपालना करे। ऐसा (रोगादि अातंक के कारण प्रायोपगमन स्वीकार) करने पर भी उसको यह काल मृत्यु (स्वाभाविक मृत्यु) होती है। उस मृत्यु से वह अन्तक्रिया (समस्त कर्मक्षय) करने वाला भी हो सकता है। इस प्रकार यह (प्रायोपगमन के रूप में किया गया शरीर-विमोक्ष) मोहमुक्त भिक्षों का आयतन (आश्रय) हितकर, सुखकर, क्षमारूप तथा समयोचित, निःश्रेयस्कर और जन्मान्तर मैं भी साथ चलने वाला है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-प्रायोषगमन अनशन : स्वरूप, विधि और माहात्म्य प्रस्तुत सूत्र में समाधिमरण के तीसरे अनशन का वर्णन है / इसके दो नाम मिलते हैं--प्रायोपगमन और पादपोपगमन / प्रायोपगमन का लक्षण है-जहाँ और जिस रूप में इसके साधक ने अपना अंग रख दिया है, वहाँ और उसी रूप में वह आयु की समाप्ति तक निश्चल पड़ा रहता है,' अंग को बिलकुल हिलाता-डुलाता नहीं। 'स्व' और 'पर' दोनों के प्रतीकार से-सेवा-शुश्रूषा से रहित मरण का नाम ही प्रायोपगमन-मरण है। - पादपोपगमम मरण का लक्षण है-जिस प्रकार पादप-वृक्ष सम या विषम अवस्था में निश्चेष्ट पड़ा रहता है, उसी प्रकार सम या विषम, जिस स्थिति में स्थित हो पड़ जाता है। अपना अंग रखता है, उसी स्थिति में आजीवन निश्चल-निश्चेष्ट पड़ा रहता है / पादपोपगमन अनशन का साधक दूसरे से सेवा नहीं लेता और न ही दूसरों की सेवा करता है। दोनों का लक्षण मिलता-जुलता है। इसकी और सब विधि तो इंगित-मरण की तरह है, लेकिन इंगित-मरण में पूर्व नियत क्षेत्र में हाथ-पैर आदि अवयवों का संचालन किया जाता है, जबकि पादपोपगमन में एक ही नियत स्थान पर भिक्षु निश्चेष्ट पड़ा रहता है / .. 1.. भगाती आराधना मू० 2063 से 2071 / 2. प्रायोपगननमरण की विशेष व्याख्या के लिए देखिए---जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भाग 4, पृष्ठ 390-391 / 3. भावती सूत्र श० 25, उ. 7 की टीका / 4. पादसोमन को विशेष व्याख्या के लिए देखिये-निधान राजेन्द्र कोष भा० 5, पृष्ठ 819 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org