________________ 154 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध वह (अनारम्भजीवी) साधक किसी भी जीव हिंसा न करता हुआ, वस्तु के स्वरूप को अन्यथा न कहे (मृषावाद न बोले) / (यदि) परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श हो तो उनसे होने वाले दुःखस्पर्शों को विविध उपायों (संसार की असारता की भावना आदि) से प्रेरित होकर समभावपूर्वक सहन करे / ऐसा (अहिंसक और सहिष्णु) साधक शमिता या समता का पारगामी, ( उत्तम चारित्र-सम्पन्न ) कहलाता है। 153. जो साधक पापकर्मों में आसक्त नहीं हैं, कदाचित् उन्हें अातंक (शीघ्रघाती व्याधि, मरणान्तक पीड़ा आदि) स्पर्श करें-पीड़ित करें, ऐसे प्रसंग पर धोर (वीर) तीर्थकर महावीर ने कहा कि 'उन दुःखस्पर्शों को (समभावपूर्वक) सहन करें।' ___ यह प्रिय लगने वाला शरीर पहले या पीछे (एक न एक दिन) अवश्य छूट जाएगा। इस रूप-सन्धि--देह के स्वरूप को देखो, छिन्न-भिन्न और विध्वंस होना, का स्वभाव है। यह अध्रव है, अनित्य है, प्रशाश्वत है, इसमें उपचय-अपचय (बढ़-घट) होता रहता है, विविध परिवर्तन होते रहना इसका स्वभाव है। जो (अनित्यता प्रादि स्वभाव से युक्त इस शरीर के स्वरूप को और इस शरीर को मोक्ष-लाभ के अवसर सन्धि के रूप में देखता है), आत्म-रमण रूप एक प्रायतन में लीन है, (शरीर और शरीर से सम्बन्धित पदार्थों को-) मोह ममता से मुक्त है; उस हिंसादि से विरत साधक के लिए संसार-भ्रमण का मार्ग नहीं है-ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-- इस उद्देशक के पूर्वाद्ध में अप्रमाद क्यों, क्या और कैसे ? इस पर कुछ सूत्रों में सून्दर प्रकाश डाला गया है। इसके उत्तरार्द्ध में प्रमाद के एक अन्यतम कारण परिग्रहवृत्ति के त्याग पर प्रेरणादायक सूत्र अंकित है / अप्रमाद के पथ पर चलने के लिए एक सजग प्रहरी को भाँति सचेष्ट और सतर्क रहना पड़ता है। खासतौर से उसे शरीर पर-स्थूल शरीर पर ही नहीं, सूक्ष्म कार्मण शरीर पर—विशेष देखभाल रखनो पड़ती है। इसकी हर गतिविधि की बारीकी से जांच-परख कर प्रागे बढ़ना होता है। अगर अष्टविध' प्रमाद में से कोई भी प्रमाद जरा भी भीतर में घुस आया तो वह आत्मा को गति-प्रगति को रोक देगा, इसलिए प्रमाद के मो) (संधि) पर बराबर निगरानी रखनी चाहिए / जैसे-जैसे साधक अप्रमत्त होकर स्थूल शरीर की क्रियाओं और उनसे मन पर होने वाले प्रभावों को देखने का अभ्यास करता जाता है, वैसे-वैसे कार्मण शरीर की गतिविधि को देखने की शक्ति भी आती जाती है। शरीर के सूक्ष्म दर्शन का इस तरह दृढ़ अभ्यास होने पर अप्रमाद की गति बढ़ती है और शरीर से प्रवाहित होने वाली 1. प्रमाद के पाँच, छह तथा पाठ भेद हैं। (क) 1 मद्य, 2 विषय, 3 कषाय, 4 निद्रा, 5 विकथा। (उत्त० नि० 180) (ख) 1 मद्य, 2 निद्रा, 3 विषय, 4 कषाय, 5 छ त, 6 प्रतिलेखन (स्था० 6). 1) 1 अज्ञान, 2 संशय, 3 मिथ्याज्ञान, 4 राग, 5 द्वेष, 6 स्मृतिभ्रश, 7 धर्म में अनादर, 8 योग-दुष्प्रणिधान (प्रव० द्वार २०७)-देखें, अभि० राजे० भाग 5, पृ० 480 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org