________________ पंचम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सूत्र 152-153 155 चैतन्य-धारा की उपलब्धि होने लगती है। इसीलिए यहाँ कहा गया है— "एस मग्गे आरिएहि पवेदिते।" आरम्भ और अनारम्भ : साधु-जीवन में-साधु गृहस्थाश्रम के बाह्य प्रारम्भों से बिलकुल दूर रहता है, परन्तु साधना-जीवन में उसको दैनिकचर्या के दौरान कई प्रारम्भ प्रमादवश हो जाते हैं / उसी प्रमाद को यहाँ प्रारम्भ कहा गया है "आदाणे निक्लेवे भासुस्सग्गे अ गण-गमणाई / सम्वो पमत्तजोगो समणस्सऽकि होइ आरंभो // ' -अपने धर्मोपकरणों या संयम-सहायक साधनों को उठाने-रखने, बोलने, बैठने, गमन करने, भिक्षादि द्वारा अाहार का ग्रहण एवं सेवन करने एवं मल-मूत्रादि का उत्सर्ग करने आदि में श्रमण का भी मन-वचन-काया से समस्त प्रमत्त योग प्रारम्भ है / ' प्राशय यह है कि गृहस्थ जहाँ सावध कार्यों में प्रवृत्त होते हैं, वहाँ साधु निरवद्य कार्यों में ही प्रवृत्त होते हैं / प्रारम्भजीवी गृहस्थ का भिक्षा, स्थान आदि के रूप में सहयोग प्राप्त करके भी, उनके बीच रहकर भी वे प्रारम्भ में लिप्त-आसक्त नहीं होते / इसलिए वे प्रारम्भजीवी में भी अनारम्भजीवी रहते हैं। संसार में रहते हुए भी वे जल-कमलवत् निर्लेप रहते हैं। शरीर-साधनार्थ भी वे निरवद्य विधि से जीते हैं / यही-अनारम्भजीवी साधक का लक्षण है। 'अयं खखेत्ति अन्न सो'-इस पद का अर्थ है कि शरीर के वर्तमान क्षण पर चिन्तन करेशरीर के भीतर प्रतिक्षण जो परिवर्तन हो रहे हैं, रोग-पीड़ा आदि नये-नये रूप में उभर रहे हैं, उनको देखे, एक क्षण का गम्भीर अन्वेषण भी शरीर की नश्वरता को स्पष्ट कर देता है। अतः गम्भीरतापूर्वक शरीर के वर्तमान क्षण का अन्वेषण करे / पंचमहाव्रती साधु को गृहीत प्रतिज्ञा के निर्वाह के समय कई प्रकार के परीषह (कष्ट), उपसर्ग, दुःख, अातंक आदि या जाते हैं, उस समय उसे क्या करना चाहिए? इस सम्बन्ध में शास्त्रकार कहते हैं-'ते फासे पटठोऽधियासते से पव्वं पेतं पच्छा पेतं' इसका प्राशय यह है कि उस समय साधक उन द:खस्पों को अनाकल और धैर्यवान होकर सहन करे। संसार की असारता की भावना, दुःख सहने से कर्म-निर्जरा की साधना आदि का विचार करके उन दुःखों का वेदन न करे, मन में दुःखों के समय समभाव रखे। शरीर को अनित्य, अशाश्वत, क्षणभंगुर और नाशवान तथा परिवर्तनशील मानकर इससे आसक्ति हटाए, देहाध्यास न करे। साथ ही यह भी विचार करे कि मैंने पूर्व में जो असातावेदनीय कर्म बांधे हैं, उनके विपाक (फल) स्वरूप जो दुःख पाएँगे, वे, मुझे ही सहने पड़ेंगे, मेरे स्थान पर कोई अन्य सहन करने नहीं आएगा और किए हुए कर्मों के फल भोगे बिना छुटकारा कदापि नहीं हो सकता। अत: जैसे पहले भी मैंने असातावेदनीय कर्म-विपाक-जनित दुःख सहे थे, वैसे बाद में भी मुझे ये दुःख सहने पड़ेंगे। संसार में कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं है, जिस पर असातावेदनीय कर्म के फलस्वरूप दुःख, रोग आदि प्रातक न आये हों, यहाँ तक कि वीतराग तीर्थकर जैसे महापुरुषों 1. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 185 में / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 186 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org